जातिगत जनगणना ढोल में पोल साबित हो रही : नीतीश का दांव उल्टा पड़ सकता है

जातिगत जनगणना ढोल में पोल साबित हो रही : नीतीश का दांव उल्टा पड़ सकता है
जातिगत जनगणना ढोल में पोल साबित हो रही : नीतीश का दांव उल्टा पड़ सकता है

संपादकीय -रवीन्द्र वाजपेयी

बिहार में जिस जातिगत जनगणना को लेकर नीतीश कुमार सामाजिक न्याय के महानायक बनकर उभरना चाहते थे वह उनके गले की फांस बनती जा रही है। उसके आंकड़ों ने विभिन्न जाति समूहों में असंतोष की लहर पैदा कर दी है। जिस आधार पर आंकड़े जारी किए गए उसकी प्रामाणिकता पर सवाल सवर्ण उठाते तब तो उपेक्षित किया जा सकता था परंतु जब पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियां ही उनको फर्जी बता रही हैं तब नीतीश को बजाय लाभ होने के राजनीतिक नुकसान होने के आसार बढ़ रहे हैं। उल्लेखनीय है एक तरफ तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी जातिगत जनगणना की मांग जोरदार तरीके से उठा रहे हैं किंतु कर्नाटक में उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया अपने पिछले कार्यकाल में करवाई जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करने का साहस नहीं जुटा पा रहे क्योंकि उनसे लिंगायत और वोक्कालिंगा समुदाय के नाराज हो जाने की जो आशंका है उससे राज्य सरकार खतरे में पड़ सकती है। बिहार को ही लें तो चुनाव सर्वेक्षण करने के बाद राजनीति के मैदान में उतरे प्रशांत किशोर ने ही इस जनगणना पर सवाल उठाकर नीतीश और लालू प्रसाद यादव को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा है कि राज्य में बीते तीस वर्षों से उन दोनों ने ही सत्ता चलाई लेकिन किसी अति पिछड़े या मुस्लिम को मुख्यमंत्री नहीं बनाया। इस सर्वे पर एतराज करते हुए अनेक जाति समूहों ने भी कहा है कि यादवों को ताकतवर बनाने के लिए विभिन्न जातियों और उपजातियों को अनेक हिस्सों में बांटकर उनकी संख्या कम बताई गई ताकि उनकी राजनीतिक वजनदारी घट जाए। सवर्ण जातियों में वैश्य वर्ग को भी अनेक हिस्सों में बांटकर उनकी संख्या घटा दी गई जबकि सभी को जोड़ने पर वे 9 फीसदी से भी अधिक हैं । वहीं 10 यदुवंशी उपजातियों को यादव नाम देकर 14 प्रतिशत का सबसे बड़ा जाति समूह बना दिया गया। अन्य जातियों के साथ भी ऐसा ही खेल हुआ। ब्राह्मणों को भी शिकायत है कि उनकी जनसंख्या पहले से भी कम कर दी गई। अति पिछड़ी जातियों को उपजातियों में विभाजित कर उनके आंकड़े कम दर्शाने की शिकायतें आ रही हैं । इससे लगता है कि जातिगत जनगणना सामाजिक न्याय की बजाय विद्वेष का आधार बन रही है। यादवों के साथ जिन यदुवंशी उपजातियों को समाहित कर लिया गया वे भी इस बात से रूष्ट हैं कि उनको लालू परिवार के अधीन कर उनके नेतृत्व को खत्म करने की चाल चली गई है। इस सबके कारण बिहार में नए जातिगत जनगणना आयोग की मांग उठ खड़ी हुई है जिसका अध्यक्ष उच्च न्यायालय के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को बनाने कहा जा रहा है। इससे यह स्पष्ट है कि जातिगत जनगणना की आड़ में पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने की जो चाल चली गई थी वह नाकामयाब साबित हुई । पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के बीच ही जबरदस्त असंतोष देखने मिल रहा है और ज्यादातर की शिकायत है कि उनकी ताकत को कमतर दिखाकर राजनीतिक हिस्सेदारी छीनी जा रही है। इस माहौल से लगता है कि आगामी चुनावों में बिहार में विपक्षी दलों का गठबंधन होने की बजाय दलों का दलदल देखने मिलेगा और छोटे – छोटे जाति समूह अपनी ताकत दिखाने के लिए चुनावी मैदान में उतरे बिना नहीं रहेंगे। नीतीश की अपनी पार्टी जनता दल (यू) में ही जातिगत जनगणना को लेकर जिस तरह की उथल – पुथल है उससे लगता है कि भाजपा को पटकनी देने का नीतीश का दांव उनके अपने लिए खतरे की घंटी बन गया है। हालांकि विपक्ष इसे राष्ट्रव्यापी मुद्दा बनाने की सोच रहा है किंतु बिहार से आ रही खबरें उससे होने वाले नुकसान का भी संकेत दे रही हैं। बिहार के बाद अब पूरे देश में छोटी जातियां गोलबंद होने लगी हैं ताकि जाति आधारित जनगणना होने पर उनकी सही संख्या सामने आ सके । इसी तरह कुछ उपजातियां आपस में मिलकर खुद को बड़ा साबित करने की राह पर बढ़ रही हैं। इसका प्रभाव सवर्णों पर भी देखा जा सकता है। विशेष रूप से वैश्य समुदाय में जो बिखराव है उसे दूर कर एक बड़ी जातीय शक्ति के तौर पर वे उभर सकते हैं । दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गरीबी को सबसे बड़ी जाति बताकर विपक्ष को चौकन्ना कर दिया है । विपक्ष के इस पैंतरे की काट के तौर पर वे ऐसा कुछ कर सकते हैं जिससे आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था को रखते हुए भी बिना जातिगत भेदभाव के समूचा वंचित वर्ग लाभान्वित हो सके । यदि मोदी सरकार आर्थिक आधार पर लोगों की मदद करने की कोई नई योजना लेकर आई तो जातिगत जनगणना का कथित मास्टर स्ट्रोक बेअसर होकर रह जावेगा क्योंकि साधारण लोगों को तो रोटी , कपड़ा और मकान के साथ ही अपनी दैनंदिन जरूरतें पूरा होने से मतलब होता है। प्रधानमंत्री इस वास्तविकता से परिचित हैं और इसीलिए उन्होंने जनकल्याण की जितनी भी योजनाएं चलाई उनका सीधा लाभ कमजोर वर्ग को मिल रहा है। उ.प्र विधानसभा के पिछले चुनाव में अखिलेश यादव द्वारा जयंत चौधरी , ओमप्रकाश राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं को मिलाकर महागठबंधन बनाए जाने के बावजूद भाजपा की सत्ता में वापसी को नहीं रोका जा सका। इसलिए ये आकलन गलत नहीं है कि नीतीश कुमार द्वारा करवाई गई जातिगत जनगणना ढोल में पोल साबित होगी क्योंकि जिन पिछड़ी जातियों को एकजुट करने यह दांव खेला गया उनमें तो पहले से ज्यादा बिखराव नजर आने लगा है ।