तमिलनाडु की राजनीति प्रारंभ से ही उत्तर भारत विरोधी रही है जिसके चलते आजादी के बाद महात्मा गांधी के समधी राजाजी तक हिंदी विरोधी हो गए जो देश के पहले गवर्नर जनरल रहने के बाद राष्ट्रपति नहीं बनाए जाने से नाराज थे। राजाजी को बापू ने नागरी प्रचारिणी सभा का प्रमुख बनाकर हिन्दी के प्रचार – प्रसार का दायित्व सौंपा था जो प्रकांड विद्वान थे और सनातन धर्म पर लिखित उनकी पुस्तकों को अत्यंत प्रामाणिक माना गया । दूसरी तरफ रामास्वामी पेरियार नामक व्यक्ति ने सनातन धर्म के विरुद्ध जहर फैलाकर अलग तमिल देश की मांग उठाते हुए हिन्दू धर्म ग्रंथों को जलाने जैसा दुस्साहस भी कर डाला। शुरू में वे कांग्रेस में थे किंतु बाद में जस्टिस पार्टी बनाकर हिन्दी भाषा और सनातन धर्म के विरुद्ध मुहिम छेड़ दी। कालांतर में जस्टिस पार्टी ही द्रमुक (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) बनी और उसी का एक धड़ा अन्ना द्रमुक के रूप में अलग हो गया। कुछ और भी नेताओं ने द्रमुक से अलग होकर छोटे दल बना लिए जिनकी राजनीति का आधार भी हिन्दी और उत्तर भारत का विरोध है। श्रीलंका में जब तमिल उग्रवादियों का आतंक चरम पर था तब द्रमुक नेता स्व.करुणानिधि ने खुलकर उसका समर्थन किया और तमिल राष्ट्र की मांग भी उठाई। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी उसी आतंकवाद की बलि चढ़ गए जिसके बाद करुणानिधि सरकार बर्खास्त कर दी गई। बीते तीन दशक में वहां की सियासत में अनेक बदलाव हुए । राजीव की हत्या के लिए शक के दायरे में रही द्रमुक आज कांग्रेस की सहयोगी पार्टी है और नवगठित इंडिया गठबंधन की प्रमुख इकाई भी। यद्यपि करुणानिधि , एम.जी रामचंद्रन और जयललिता के न रहने के बाद लगा था कि उत्तर भारत के विरुद्ध बोए गए जहर का प्रभाव कम होने लगा है। लेकिन गाहे – बगाहे कभी हिन्दी तो कभी द्रविड़ों को भारत का मूल निवासी बताकर अलग देश की मांग छेड़ी जाती रही है। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि दलित और पिछड़ों की जो राजनीति उत्तर भारत में हावी है उसे तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियों ने दशकों पहले अपना लिया था। यद्यपि वहां के समाज में सनातनी परंपराएं आज भी यथावत हैं और धार्मिक कट्टरता उत्तर भारत के राज्यों से कई गुना ज्यादा भी । बावजूद उसके 1967 के बाद से कांग्रेस और अन्य कोई दल द्रविड़ वर्चस्व को नहीं तोड़ सका। बीते दो दशक से भाजपा भी हाथ पांव मार रही है किंतु उत्तर भारतीय होने का ठप्पा लगा होने से वांछित सफलता हाथ नहीं लगी। करुणानिधि के बाद विरासत के विवाद में छोटे बेटे स्टालिन ने बाजी मार ली और मुख्यमंत्री बन गए। उधर जयललिता के बाद अन्ना द्रमुक में बिखराव आ गया । पिता के साए में सियासत करते रहने से स्टालिन भी हिन्दी तथा उत्तर भारत का विरोध करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते । लेकिन गत दिवस उनकी सरकार में मंत्री उनके बेटे उदयनिधि ने बयान दे डाला कि सनातन धर्म मलेरिया , डेंगू और कोरोना जैसा है जिसकी केवल रोकथाम ही नहीं अपितु उसे जड़ से नष्ट किया जाना जरूरी है। उनके अनुसार कुछ चीजों को बदला नहीं जा सकता , उनको नष्ट करना ही उपाय है। उक्त बयान के विरुद्ध भाजपा एवं संघ परिवार तो खुलकर सामने आ गया किंतु इंडिया गठबंधन की प्रमुख घटक कांग्रेस के सामने उगलत निगलत पीर घनेरी वाली स्थिति उत्पन्न हो गई। इसलिए उसने तत्काल उस बयान से अपने को दूर कर लिया। समाजवादी पार्टी ने भी वही रास्ता अपनाया। गठबंधन की बाकी पार्टियां भी बचती नजर आ रही हैं। हालांकि हिंदुत्व की प्रबल समर्थक शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट की खामोशी चौंकाने वाली है । लेकिन कांग्रेस के बड़े नेता पी.चिदंबरम के सांसद बेटे कार्ति चिदंबरम ने उदयनिधि के सनातन धर्म विरोधी बयान का समर्थन कर पार्टी को मुसीबत में डाल दिया है। कार्ति की मजबूरी ये है कि वे बिना द्रमुक की सहायता के अगला चुनाव नहीं जीत सकेंगे। दिल्ली में प्रकरण दर्ज होने के बाद भी उदयनिधि ने अपने बयान पर कायम रहने की बात कही है। दरअसल ये 82 फीसदी हिंदुओं की भावनाओं को भड़काने का षडयंत्र है । रही बात सनातन धर्म को नष्ट करने की तो ऐसा सोचने वाले समय के साथ नष्ट होते गए किंतु सनातन धर्म और उसका प्रभाव आज विश्व व्यापी है। उदयनिधि को ये समझना चाहिए कि नास्तिक होने के बाद भी चार दशक तक प.बंगाल में राज करने पर भी वामपंथी धार्मिक आस्था को खत्म नहीं कर सके । केरल में भी वामपंथी सत्ता में आते – जाते रहे किंतु वहां सनातनी परंपराएं यथावत हैं और नास्तिक कहे जाने वाली सरकार के राज में भी केरल को भगवान का अपना देश कहकर प्रचारित किया जाता है। ऐसे में जाति प्रथा नामक बुराई के नाम पर सनातन धर्म को मिटाने का ऐलान देश को तोड़ने के साजिश है जिसका हर राजनीतिक दल को खुलकर विरोध करना चाहिए। उदयनिधि को ये याद रखना चाहिए कि पेरियार , अन्ना दोराई और करुणानिधि जैसे दिग्गज तक डींग हांकते – हांकते चले गए किंतु तमिलनाडु में सनातन धर्म के प्रतीक प्राचीन मंदिरों के प्रति आस्था और सनातनी जीवन पद्धति में श्रद्धा लेश मात्र भी कम नहीं हुई। इसका कारण ये है कि सनातन धर्म में आत्मावलोकन की बेजोड़ क्षमता है और वह समय – समय पर अपनी कमियों को खुद होकर दूर करता रहता है। सही बात तो ये है कि उदयनिधि और उनके बाप – दादे केवल अपनी गली के दादा रहे हैं । इसीलिए तमिलनाडु से बाहर आकर राजनीति करने की हिम्मत नहीं दिखा सके।