संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
कहने को तो 20 अक्टूबर एक तारीख मात्र है। लेकिन 61 वर्ष पूर्व का 20 अक्टूबर कभी न भूलने वाला बन गया । 1962 में इसी दिन चीन ने दोस्ती की धज्जियां उड़ाते हुए लद्दाख से अरुणाचल तक हमला बोल दिया था। तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. नेहरु के साथ ही पूरा देश हतप्रभ रह गया। आजादी के महज 15 साल बाद देश की सैन्य तैयारी ऐसी नहीं थी कि उस आक्रमण का मुकाबला कर पाते। इसीलिए अप्रतिम शौर्य और पराक्रम का परिचय देने के बाद भी हमारे हिस्से में हार आई और हजारों वर्ग किलोमीटर भूमि चीन ने हथिया ली । आज भी वह चाहे जब लद्दाख, अरुणाचल , सिक्किम और भूटान से लगे क्षेत्रों को अपना बताने की शरारत किया करता है। अपने नक्शे में अरुणाचल को दक्षिणी तिब्बत नाम देकर दर्शाने से भी वह बाज नहीं आता। 1962 के बाद हालांकि छुटपुट झड़पें अवश्य होती रहीं लेकिन आपसी समझौते के अंतर्गत शस्त्रों के उपयोग से दोनों देश बचते रहे। इसीलिए 2020 की गर्मियों में गलवान घाटी में हुई झड़प में बड़ी संख्या में दोनों पक्षों के सैनिकों के हताहत होने के बावजूद एक भी गोली नहीं चली । वास्तविक नियन्त्रण रेखा की स्थिति को बदलने का जो प्रयास चीन द्वारा किया गया वह भारत की जबरदस्त सैनिक और कूटनीतिक तैयारी से सफल न हो सका । अग्रिम मोर्चों तक सडकें , पुल और हवाई पट्टी का निर्माण करते हुए हमने उन दुर्गम सीमा क्षेत्रों में अपनी प्रभावशाली उपस्थिति दर्ज कराई है। इसी वजह से स्थिति बेहद तनावपूर्ण होने के बाद भी 1962 की पुनरावृत्ति नहीं हो सकी। भारत द्वारा चीन से सटी पूरी सीमा पर सैनिकों के अलावा मिसाइलें, तोपें, टैंक और लड़ाकू विमानों के साथ ही अत्याधुनिक राडार प्रणाली स्थापित कर दी गई। इसीलिए चीन सीधी लड़ाई से बचता है। लेकिन आज के दिन हमें इस बात पर मंथन करना चाहिए कि 61 वर्षों में चीन के साथ सीमा विवाद का हल क्यों नहीं हो सका ? भले ही वह आज दुनिया की बड़ी आर्थिक और सैन्य महाशक्ति हो परंतु 30 – 35 वर्ष पूर्व तक भारत उसकी तुलना में कहीं बेहतर स्थिति में था। और फिर ये सवाल भी अपनी जगह है कि उसके आधिपत्य में चली गई भूमि की वापसी के लिए हमने कभी कोई मुहिम क्यों नहीं चलाई ? गौरतलब है लगभग डेढ़ दशक से चीन के साथ हमारा व्यापार पूरी तरह से इकतरफा चल रहा है। अर्थात निर्यात कम और आयात ज्यादा होने से उसको तो बेशुमार लाभ पहुंचा परंतु हमारे छोटे और मझोले उद्योग बरबाद हो गये। गलवाल की घटना के बाद केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक मोर्चे पर कड़े कदम उठाकर चीन को शह देने का जो साहसिक कदम उठाया गया वैसा पहले ही उठाया जाता तो स्थिति दूसरी होती। उस दृष्टि से 20 अक्टूबर की तारीख ये सोचने की है कि चीन द्वारा विस्तारवाद की नीति के अंतर्गत तिब्बत पर कब्जे को मान्यता देने जैसी गलती का खामियाजा भुगतने के बाद भी उसको लेकर हमारी कोई ठोस नीति क्यों नहीं बन सकी ? तिब्बत को कब्जाने के बाद चीन ने अंग्रेजों के ज़माने के समझौतों को नकारकर कहना शुरू कर दिया कि भारत के साथ सीमाओं का कभी निर्धारण हुआ ही नहीं और आज भी वह उसी बात पर अड़ा है । ऐसे में उसको ये बताने की जरूरत है कि यदि सीमा संबंधी ऐतिहासिक समझौते बेमानी हैं तब तिब्बत पर उसका कब्जा भी गैर कानूनी है। बीते कुछ वर्षों के घटनाक्रम से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि चीन को उसी की शैली में जवाब दिया जाए तो उसकी अकड़ कम हो जाती है। आज भले ही युद्ध न हो रहा हो लेकिन यही उचित समय है जब भारत को ऐसी नीति बना लेनी चाहिए जिसमें हम बातचीत की शर्तें निर्धारित करने की स्थिति में हों। चीन माओ के दौर से ही इस नीति पर चला कि दुनिया झुकती है, झुकाने वाला चाहिए। जबसे भारत भी उसी भाषा में बात करने लगा तभी से वह गर्मी के साथ ही नर्मी की नीति पर चलने लगा है। गलवान घाटी में मारे गए अपने सैनिकों की सही संख्या वह आज तक सार्वजनिक नहीं कर सका । वन बेल्ट वन रोड परियोजना के खटाई में पड़ने के कारण उसे आर्थिक नुकसान भी हो रहा है। वहीं कोविड संक्रमण फैलाने के आरोप की वजह से उसकी साख पर बट्टा लगा है। वैश्विक मंचों पर भारत की बढ़ती वजनदारी के कारण भी वह दबाव में है । लेकिन उससे सतर्क रहना बेहद जरूरी है ताकि 20 अक्टूबर 1962 जैसा धोखा दोबारा न खाना पड़े।