महाराष्ट्र की राजनीति में व्याप्त अनिश्चितता पर फिलहाल विराम लग गया। विधान सभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर ने 1200 पन्नों के फैसले में शिवसेना में हुए विभाजन के विरुद्ध उद्धव ठाकरे गुट की याचिकाओं को खारिज करते हुए मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के गुट को असली शिवसेना होने का प्रमाणपत्र दे दिया किंतु दोनों गुटों के विधायकों की सदस्यता को बरकरार रखा। उनके फैसले से शिंदे सरकार भी बची रही और उद्धव के साथ रह गए विधायक भी सुरक्षित रहे। शिवसेना का नाम और चिन्ह अब पूरी तरह से श्री शिंदे के पास आ गया। हालांकि चुनाव आयोग इसका फैसला तकनीकी आधार पर पहले ही कर चुका था। श्री नार्वेकर ये फैसला अभी भी न देते किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने उनको चेतावनी दी थी कि यदि 10 जनवरी तक वे निर्णय नहीं लेंगे तो फिर वह खुद होकर निर्णय कर देगा । उनके निर्णय पर दोनों पक्ष अपने – अपने दृष्टिकोण से टिप्पणियां कर रहे हैं। उद्धव गुट इसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय जाने की बात कह रहा है। लेकिन वहां भी जल्दी फैसला नहीं हो सकेगा और तब तक विधानसभा चुनाव हो जायेंगे। संभावना तो लोकसभा के साथ ही होने की है। इस मामले के वैधानिक पहलुओं की विवेचना तो कानून के जानकार करते रहेंगे किंतु व्यवहारिक और नैतिक दृष्टि से देखें तो विधानसभा अध्यक्ष द्वारा निर्णय को टालते रहने का औचित्य समझ से परे है। हालांकि श्री नार्वेकर पहले ऐसे अध्यक्ष नहीं हैं जिन्होंने इस प्रकार का रवैया दिखाया हो। वैसे भी अब वह दौर नहीं रहा जब सदन का अध्यक्ष चुने जाने वाला व्यक्ति अपने को दलीय राजनीति से दूर कर लेता था। आजकल तो वे पार्टी की गतिविधियों में खुलकर हिस्सा लेते हैं। इसीलिए उनकी निष्पक्षता संदेह के घेरे में आ जाती है। श्री नार्वेकर की दलीय निष्ठा भी किसी से छिपी नहीं है। इसलिए उन्होंने किसी न किसी बहाने से अपने फैसले को टाला। यद्यपि विवाद शुरू होते ही वे फैसला देते तब भी शायद वह बहुत अलग नहीं होता किंतु तब वे सर्वोच्च न्यायालय दौरा लगाई गई लताड़ से बच सकते थे। उनके पहले भी विभिन्न राज्यों में ये देखने मिला है कि अध्यक्ष ने दलबदल के मामलों में अपना निर्णय तब तक टाला जब तक समय और परिस्थिति सत्ता पक्ष के अनुकूल नहीं हुई। उ.प्र में स्व.केसरीनाथ त्रिपाठी का उदाहरण इस बारे में अक्सर लिया जाता है। म.प्र विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष एन.पी.प्रजापति भी 22 कांग्रेस विधायकों के त्यागपत्र का मामला बिना किसी वजह के टालते रहे। दरअसल सदन संबंधी ज्यादातर विषयों में न्यायपालिका के अधिकार सीमित हैं। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय भी उद्धव गुट की याचिकाओं पर फैसले की गेंद विधानसभा अध्यक्ष के पाले में सरकाता रहा। हालांकि अब उनके फैसले की समीक्षा वह कर सकता है किंतु समूची प्रक्रिया इतनी उबाऊ है कि फैसला होते तक असल मुद्दा अपना महत्व ही खो देता है। ये देखते हुए जो फैसला अध्यक्ष महोदय ने गत दिवस सुनाया यदि यही वे एक साल पहले कर देते तब महाराष्ट्र की राजनीति पर अनिश्चितता का जो धुंध छाया हुआ था वह तो दूर होता ही , सर्वोच्च न्यायालय को भी उसके विरुद्ध प्रस्तुत अपील पर निर्णय करने पर्याप्त समय मिल जाता। महाराष्ट्र में इसी साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। उस लिहाज से ये फैसला उद्धव ठाकरे गुट के लिए बड़ा झटका है क्योंकि शिवसेना के तमाम नेता और कार्यकर्ता जो अभी तक असमंजस में थे वे अब खुलकर निर्णय ले सकेंगे कि उन्हें किसके साथ जाना है। सबसे बड़ी बात ये हुई कि इंडिया गठबंधन में उद्धव ठाकरे की सौदेबाजी की हैसियत कमजोर पड़ गई है। कांग्रेस और एनसीपी अब श्री ठाकरे को पहले जैसा भाव देंगे , इसमें संदेह है। और यही भाजपा चाहती भी थी। इसीलिए अध्यक्ष ने अपना निर्णय लेने में इतना लंबा समय लगाया । आगे यह मामला सर्वोच्च न्यायालय गया तब उसके फैसले को एक नजीर के रूप में लिया जावेगा किंतु ये सवाल अभी भी अनुत्तरित है कि दलबदल के मामलों में सदन के अध्यक्ष को फैसले के लिए अधिकतम कितना समय मिलना चाहिए ? यदि श्री नार्वेकर सर्वोच्च न्यायालय को अल्टीमेटम देने का अवसर दिए बिना ही दलबदल करने वाले विधायकों की अयोग्यता का फैसला कर देते तब दूसरे पक्ष द्वारा की जा रही आलोचना को उतना वजन न मिलता। बेहतर हो सर्वोच्च न्यायालय कोई व्यवस्था दे ताकि ऐसे मामलों में असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर पीठासीन अधिकारी एक निश्चित समय सीमा में अपना निर्णय सुनाएं।