आज की पीढ़ी कर्पूरी ठाकुर का नाम भी भूल चुकी होगी। उन्हें संसार से गए 36 साल हो रहे हैं। अचानक वे स्मृति पटल पर तैरने लगे क्योंकि 100 वीं जयंती पर भारत सरकार ने उनको भारत रत्न देने की घोषणा कर दी। पिछड़ी जाति में जन्मे कर्पूरी बाबू समाजवादियों की उस पीढ़ी से जुड़े थे जिसका संबंध सिद्धांतों की सियासत से था और जिसने डा.राम मनोहर लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के नारे को आत्मसात किया । वे बिहार के दो बार मुख्यमंत्री बने । उनका कार्यकाल उन्हीं नीतियों के क्रियान्वयन के लिए याद किया जाता है जो आचार्य नरेंद्र देव , डा.लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे विचारकों से प्रेरित थीं। पिछड़ी जातियों के उन्नयन के प्रति उनका योगदान अविस्मरणीय है। सत्ता का उपयोग उन्होंने अपने लिए न करते हुए वंचित और शोषित वर्ग के उत्थान के लिए किया। ऐसे व्यक्ति को भारत रत्न दिए जाने का कोई भी विरोध नहीं करेगा किंतु विडंबना ये है कि उनकी महानता का मूल्यांकन करने में 36 वर्ष लग गए। यद्यपि ये पहला उदाहरण नहीं है जब भारत रत्न किसी व्यक्ति को मरणोपरांत प्रदान किया गया हो। संविधान के रचयिता कहे जाने वाले डा. आंबेडकर को उनकी मृत्यु के 46 वर्ष बाद और बनारस हिन्दू विवि के संस्थापक महामना मदनमोहन मालवीय को उनके न रहने के 68 वर्ष बाद भारत रत्न दिया गया। ये सभी सर्वथा योग्य थे। लेकिन अवसान के दशकों बाद भारत रत्न देने के पीछे उनके मूल्यांकन से ज्यादा राजनीतिक लाभ की मंशा रही। डा.आंबेडकर का कांग्रेस और पंडित नेहरू से हुआ विवाद जगजाहिर था। उनको भारत रत्न विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने दिया जिसके दौर में जातिवादी राजनीति हावी हो चुकी थी। इसी तरह मालवीय जी को भारत रत्न तब मिला जब नरेंद्र मोदी वाराणसी से लोकसभा चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बने। मालवीय जी को अलंकृत करने के पीछे भी वाराणसी सहित पूर्वांचल को प्रभावित करने का दांव था। ये सब देखते हुए भारत रत्न के राजनीतिकरण से इंकार नहीं किया जा सकता। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री रहे एम.जी.रामचंद्रन और सुप्रसिद्ध असमिया गायक भूपेन हजारिका को मरणोपरांत भारत रत्न क्षेत्रीय भावनाओं को भुनाने के लिए दिया गया। विख्यात क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को खेल से संन्यास लेने वाले दिन ही जब भारत रत्न देने का ऐलान हुआ तब सवाल उठा कि सबसे पहले 10 हजार रन बनाने वाले सुनील गावस्कर और 1983 के विश्व कप में भारत को विजय दिलाने वाले कपिल देव को इससे वंचित क्यों रखा गया ? इसी तरह अनेक ऐसे व्यक्तियों को भारत रत्न देने से परहेज किया जाता रहा जिनका इस राष्ट्र के प्रति प्रशंसनीय योगदान रहा । हालांकि मोदी सरकार ने पद्म अलंकरणों की चयन प्रक्रिया को तो पारदर्शी और गुणवत्ता आधारित बना दिया किंतु भारत रत्न के बारे में वह स्थिति नहीं है। कर्पूरी ठाकुर को मृत्यु के 36 वर्ष बाद इस सम्मान से विभूषित करने का फैसला भी विशुद्ध राजनीतिक है । इसके जरिए आगामी लोकसभा चुनाव में बिहार में भाजपा की स्थिति मजबूत करने का दांव ही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो फैसले की तारीफ की । वहीं लालू प्रसाद यादव का कहना है कि भाजपा बिहार में जातिगत जनगणना के कारण भयभीत हो उठी किंतु लालू और उन के समाजवादी साथियों को इस बात का जवाब देना चाहिए कि 2004 से 2014 तक जिस केंद्र सरकार का वे भी हिस्सा रहे उस पर स्व.ठाकुर को भारत रत्न दिलवाने का दबाव क्यों नहीं बनाया ? इसमें दो राय नहीं हैं कि प्रधानमंत्री हर समय चुनाव लड़ने की मुद्रा में रहते हैं। स्व.ठाकुर को भारत रत्न देकर उन्होंने पिछड़े वर्ग की राजनीति करने वाले तबके को चौंका दिया। राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा को राजनीतिक बताकर जो विपक्ष अयोध्या नहीं गया वह भी इस निर्णय का विरोध नहीं कर पा रहा। यद्यपि कांग्रेस इसे केंद्र सरकार की हताशा बता रही है परंतु उसके पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है कि समाजवाद के इस प्रतीक पुरुष को अलंकृत करने का ध्यान उसकी सरकार को क्यों नहीं आया ? उल्लेखनीय है पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी को उनके प्रधानमंत्री रहते हुए ही भारत रत्न प्रदान किया गया जबकि प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू को पद से निवृत्त होने के बाद । इस प्रकार देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान भी राजनीतिक प्रपंच से मुक्त न रह सका। बेहतर हो उन समस्त दिवंगत विभूतियों को सूचीबद्ध करते हुए एक साथ भारत रत्न दे दिए जाएं जिन्होंने समाज के भले के लिए अपना अमूल्य योगदान दिया हो , क्योंकि किसी के न रहने के दशकों बाद इस तरह का सम्मान अपनी सार्थकता खो बैठता है। पी
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