संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
भाजपा द्वारा म.प्र में ओबीसी मुख्यमंत्री बनाए जाने की संभावना के साथ ही ये भी माना जा रहा था कि लोकसभा चुनाव तक शिवराज सिंह चौहान ही बने रहेंगे ताकि उनकी लोकप्रियता का लाभ लिया जा सके। लेकिन केंद्रीय नेतृत्व ने सभी अनुमान ध्वस्त करते हुए उनकी ही सरकार में उच्च शिक्षा मंत्री रहे मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनवा दिया। साथ ही जातीय संतुलन का ध्यान रखते हुए जगदीश देवड़ा और राजेंद्र शुक्ल को उपमुख्यमंत्री और नरेंद्र सिंह तोमर को विधान सभा अध्यक्ष की कुर्सी सौंप दी। मंत्रीमंडल के बारे में शपथ ग्रहण के समय ही स्थिति स्पष्ट होगी क्योंकि आज की भाजपा में महत्वपूर्ण निर्णयों को लेकर अंत तक गोपनीयता बनाए रखी जाती है। मुख्यमंत्री की दौड़ में शामिल रहे अन्य नेताओं के भविष्य को लेकर अटकलें लगाई जाने लगी हैं। दरअसल पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को श्री चौहान के विकल्प के तौर पर ऐसे नेता की तलाश थी जो प्रतिबद्धता , योग्यता और क्षमता तीनों कसौटियों पर खरा साबित होने के साथ ही जातीय समीकरणों के लिहाज से भी स्वीकार्य हो। 58 वर्षीय श्री यादव अभाविप और भाजपा के साथ ही रास्वसंघ से भी जुड़े रहे। ये देखते हुए उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता प्रमाणित है। कांग्रेस द्वारा ओबीसी को लुभाने के लिए जो दांव चले जा रहे थे उनको बेअसर करने के लिए भाजपा ने ये पैंतरा चल दिया । सच तो ये है कि भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व और रास्वसंघ दीर्घकालीन लक्ष्यों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। बीते दस सालों में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने भाजपा को भविष्य की पार्टी बनाने की जो कार्ययोजना बनाई उसे लागू करने में कुछ गलतियां भी हुईं । जिनकी वजह से अनेक राज्यों में पार्टी को नुकसान उठाने पड़े किंतु उन गलतियों को सुधारने की प्रक्रिया भी उतनी ही तेजी से चलने की वजह से ही वह राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती से अपने पैर जमाए रखने में सफल है। म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान 2018 में हाथ से निकाल जाने के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां कांग्रेस को चारों खाने चित्त कर दिया। और पांच साल बाद तीनों में शानदार जीत हासिल कर दिखा दिया कि गलतियों से कैसी सीखा जा सकता है। लेकिन पार्टी नेतृत्व इस जीत से संतुष्ट होने के बजाय भविष्य की तैयारी में जुट गया जिसका प्रमाण छत्तीसगढ़ और म.प्र में मुख्यमंत्री का चयन है। वैसे भी म.प्र जनसंघ के जमाने से ही हिंदुत्ववादी राजनीति के लिए अनुकूल रहा है। ऐसे में यहां के राजनीतिक घटनाक्रम का प्रभाव अन्य राज्यों में भी होता है। और इसीलिए इस बार पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने ऐसे राजनीतिक समीकरण बिठाए जिससे पड़ोसी प्रदेश प्रभावित हों। मुख्यमंत्री के रूप में मोहन यादव का चयन यह दर्शाने का प्रयास भी है कि भाजपा में नेता पार्टी संचालित नहीं करते अपितु पार्टी नेताओं को चलाती है। शिवराज सिंह भी जब मुख्यमंत्री बने थे तब उनके पास संगठन और सांसदी का अनुभव तो था किंतु प्रशासनिक नहीं । लेकिन उसके बाद भी वे 18 साल से ज्यादा मुख्यमंत्री रहे और कार्यकाल के आखिरी चुनाव में भी पार्टी को जबरदस्त सफलता दिलवाई। उस दृष्टि से देखें तो श्री यादव के पास तो मंत्री पद का अनुभव भी है और उनके साथ बने दोनों उपमुख्यमंत्री भी तजुर्बेकार हैं। कुछ महीनों बाद ही लोकसभा चुनाव की हलचल शुरू हो जाएगी । ऐसे में श्री यादव के सामने दोहरी चुनौती है। पहली तो शिवराज सरकार की जनकल्याणकारी योजनाओं को जारी रखना और दूसरी लोकसभा चुनाव में 2018 के प्रदर्शन को दोहराना। जहां तक दूसरी का सवाल है तो उसमें तो उनको ज्यादा परेशानी नहीं होगी क्योंकि लोकसभा का मुकाबला तो मोदी के नाम पर लड़ा जाएगा किंतु लोक लुभावन योजनाओं और कार्यक्रमों की निरंतरता के साथ चुनाव घोषणापत्र में किए गए वायदों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन जुटाना बड़ी समस्या है । इस स्थिति से नए मुख्यमंत्री कैसे निपटते हैं उस पर काफी कुछ निर्भर करेगा । मंत्रीमंडल का गठन होने के बाद उनकी टीम की क्षमता का आकलन किया जा सकेगा। लेकिन भाजपा आलाकमान ने जो फैसला म.प्र के बारे में किया उसने विरोधियों से ज्यादा समर्थकों को हैरान कर दिया । हालांकि सब कुछ बहुत सोच – समझकर किया गया है और इसके पीछे अगले एक दशक की कार्य योजना है। ऐसे समय जब प्रदेश में कांग्रेस के बड़े नेता वृद्धावस्था के कारण थके नजर आने लगे हैं और दूसरी पंक्ति का नेतृत्व पनपने ही नहीं दिया गया तब भाजपा के पास म.प्र को अपना अभेद्य दुर्ग बनाने का स्वर्णिम अवसर है। निवर्तमान मुख्यमंत्री श्री चौहान ने पार्टी को समाज के पिछड़े वर्गों से जोड़ने का जो कारनामा कर दिखाया उसके कारण श्री यादव को काफी सहूलियतें भी हैं। वे चूंकि पार्टी की विचारधारा और कार्य संस्कृति से भली – भांति परिचित हैं इसलिए सफल मुख्यमंत्री साबित होंगे ये उम्मीद की जा सकती है।