संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
ऐसा लगता है इंडिया नामक विपक्षी गठबंधन का जन्म सही मुहूर्त में नहीं हुआ। तभी तो उसकी गाड़ी अभी से हिचकोले खाने लगी है। हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनावों को 2024 के लोकसभा चुनाव का सेमी फाइनल माना जा रहा था। उस दृष्टि से विपक्षी एकता के लिए ये चुनाव नुकसानदेह रहे। तेलंगाना में कांग्रेस ने जिस बीआरएस से सत्ता छीनी वह भाजपा विरोधी होने से विपक्षी ही कहलाएगी। लेकिन म.प्र, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन में शामिल दलों के बीच सीटों का बंटवारा नहीं होने से भाजपा विरोधी मतों में विभाजन से कांग्रेस का नुकसान तो हुआ ही, अविश्वास की खाई और चौड़ी हो गई। सपा, आम आदमी पार्टी और जनता दल (यू) ने कांग्रेस से कुछ सीटें मांगी थीं। लेकिन उसने किसी को भाव नहीं दिया। यहां तक कि भोपाल में होने वाली इंडिया की रैली भी रद्द कर गठबंधन के सदस्य दलों से दूरी बना ली। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और कमलनाथ के बीच तो तीखी टिप्पणियों का आदान-प्रदान भी चला। उक्त तीनों राज्यों में कांग्रेस बुरी तरह हारी जिसके बाद गठबंधन में शामिल ज्यादातर दलों ने उसे अहंकारी तक बता डाला। यही नहीं तो 6 दिसंबर को गठबंधन के सदस्यों की जो बैठक श्री खरगे ने आमंत्रित की थी उसमें आने से भी विपक्ष के ज्यादातर दिग्गजों ने इंकार कर दिया। उनका कहना था कि बैठक की तिथि तय करने से पहले किसी से सलाह नहीं ली गई। उसके बाद बैठक टालनी पड़ी जिससे कांग्रेस की जमकर किरकिरी हुई। बाद में पता चला कि राहुल गांधी को चूंकि 8 दिसंबर को विदेश यात्रा पर निकलना है इसलिए बैठक 6 तारीख को रख ली गई। अनेक नेताओं ने श्री गांधी को विदेश यात्राओं पर भी सवाल दागे। अगली बैठक कब और कहां होगी ये निश्चित नहीं है। कांग्रेस इसे लेकर बेहद चौकन्नी है क्योंकि अगली बैठक में गठबंधन के संयोजक का नाम तय होने के साथ ही लोकसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे का फार्मूला तय किया जाना है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले दिन से संयोजक बनने के लिए लालायित हैं। लेकिन शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत ने उद्धव ठाकरे का नाम उछालकर खींचातानी और बढ़ा दी। शरद पवार भी अपनी पार्टी में हुई टूटन से उबर नहीं पा रहे। उधर ममता बैनर्जी प. बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी गठबंधन के लिए लोकसभा सीट छोड़ने के बारे में पहले से ही नकारात्मक रवैया दिखाती आई हैं। यही हालात केरल के हैं जहां वाममोर्चा और कांग्रेस एक दूसरे के विरुद्ध तलवारें भांजते रहते हैं। उत्तर भारतीय राज्यों में इंडिया गठबंधन के अनेक घटक दल मजबूत स्थिति में होने से कांग्रेस को उपकृत करने से हिचक रहे हैं। म.प्र में कमलनाथ और अखिलेश यादव के बीच चले शब्द बाणों के दौरान ही श्री यादव उ.प्र में लोकसभा सीटों के बंटवारे को लेकर कांग्रेस से वैसा ही व्यवहार किए जाने की धमकी दे चुके हैं। यहां तक कि उ.प्र कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय के प्रति चिरकुट जैसा शब्द तक उनके द्वारा प्रयोग किया गया। पांच राज्यों के चुनाव के बाद इंडिया गठबंधन के सदस्य कांग्रेस पर दबाव बनाने में जुट गए हैं। जिस तरह की बयानबाजी हो रही है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि 2024 में भाजपा को रोकने के लिए विपक्ष इंडिया गठबंधन के बैनर तले एकत्रित तो होना चाहता है लेकिन ज्यादातर पार्टियां कांग्रेस के वर्चस्व को स्वीकार करने के प्रति अनिच्छुक हैं। ऊपर से आए दिन आने वाले गैर जिम्मेदाराना बयान भी इस गठबंधन के भविष्य को संकट में डाल देते हैं। मसलन संसद में एक द्रमुक सांसद ने उत्तर भारत को गौमूत्र राज्य कहकर उनका उपहास किया। जबरदस्त विरोध के बाद उन्होंने अपने बयान को वापस लेते हुए माफी भी मांगी। लेकिन उसके पीछे स्वेच्छा न होकर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन की समझाइश थी जो अपने बेटे के सनातन संबंधी बयान के कारण उत्तर भारत में घृणा का पात्र बने हुए हैं। ये विवाद ठंडा भी नहीं हुआ था कि तेलंगाना के नए मुख्यमंत्री कांग्रेस नेता रेवंत रेड्डी ने निवर्तमान मुख्यमंत्री के. सी. राव को बिहार से जोड़ते हुए उन्हें कुर्मी बताकर टिप्पणी की कि तेलंगाना का डी.एन.ए बिहार से बेहतर है। उक्त बयान आए दो दिन बीत गए किंतु कांग्रेस ने उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। जाहिर है बिहार से तेलंगाना का डी. एन. ए बेहतर होने संबंधी बयान पर कांग्रेस और नीतीश के बीच नाराजगी और बढ़ सकती है। सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि 3 दिसंबर के बाद राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा ने मौन साध रखा है। सही बात तो ये है कि उनके पास बोलने के लिए कुछ है ही नहीं। भाजपा के हमलों को झेलना तो ठीक किंतु इंडिया गठबंधन के घटक दलों के नेताओं द्वारा कांग्रेस पर जो आक्रमण किए जा रहे हैं, उनका निशाना दरअसल राहुल ही हैं। घटक दल कांग्रेस को जिस प्रकार घेरने लगे हैं उससे ऐसा लगता है संयोजक पद और सीटों के बंटवारे को लेकर होने वाली बैठक में जबरदस्त खींचातानी होगी। वैसे भी सनातन और डी. एन.ए जैसे मुद्दों पर कांग्रेस की खामोशी उसके लिए मुसीबत का कारण बन गई है। हिन्दी पट्टी के तीन प्रमुख राज्य हार जाने के बाद उसके भाव वैसे भी गिरे हुए हैं।