संसार में सब प्रकार के लोग होते हैं। कुछ अच्छी भावना वाले और कुछ बुरी भावना वाले । जो अच्छी भावना वाले लोग होते हैं। वे सुखी संपन्न और सफल व्यक्ति कहलाते हैं। क्योंकि वे ईश्वर की आज्ञा का पालन करते हैं। इसी का नाम धर्म का आचरण है। ऐसे लोग अपनी उन्नति के लिए पूर्ण परिश्रम करते हैं। फलस्वरूप ईश्वर की कृपा से जो धन संपत्ति साधन आदि उन्हें प्राप्त होते हैं, उन साधनों से वे अपने जीवन की रक्षा भी करते हैं, और दूसरों की सहायता भी करते हैं। उनके दुखों को दूर करते हैं। उनकी समस्याओं को सुलझाते हुए उनके सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा भी करते हैं। ऐसे लोग बुद्धिमानों की दृष्टि में अच्छे माने जाते हैं। जो बुरी भावना वाले लोग होते हैं, वे भी परिश्रम करते हैं। धन संपत्ति आदि साधनों का संग्रह करते हैं। वे अपनी आवश्यकताएं पूरी करके कभी-कभी दूसरों का भी सहयोग करते हैं। ऐसे लोग दूसरों की सहायता तो करते हैं, परंतु वे जिनकी सहायता करते हैं, उनको नीचा दिखाते रहते हैं। उनके स्वाभिमान पर चोट करते रहते हैं। उनको अपने नीचे दबाकर रखना चाहते हैं। यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं है। ऐसे लोग बुद्धिमानों की दृष्टि में अच्छे नहीं माने जाते। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति को स्वात्म निर्भर होकर जीना चाहिए। अपने पुरुषार्थ से प्राप्त धन संपत्ति आदि साधनों से ही अपना जीवन चलाना चाहिए। फिर भी कभी-कभी व्यक्ति आपत्तिकाल में आ जाता है, और उसे दूसरों की सहायता लेनी पड़ती है। जब दूसरों की सहायता लेनी ही पड़े, तो ऐसी स्थिति में जो अच्छी भावना वाले लोग हैं, उनसे सहयोग लेना चाहिए। उनका धन्यवाद करना चाहिए। उनका उपकार मानना चाहिए। समय आने पर जिन लोगों से सहायता ली थी, उनकी सहायता भी करनी चाहिए। कृतज्ञतापूर्वक नम्रतापूर्वक उनका भी प्रत्युपकार करना चाहिए। इसी का नाम सभ्यता है और जो दुष्ट लोग हैं, जो थोड़ी सी सहायता देकर दूसरों के स्वाभिमान पर चोट करते रहते हैं, उनसे सहायता नहीं लेनी चाहिए। इस प्रकार से यदि आप अपना जीवन जिएंगे, तो सुखपूर्वक जी पाएंगे। और आप भी एक सभ्य एवं सफल व्यक्ति कहलाएंगे।
–स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय रोजड़, गुजरात।