संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
सर्वोच्च न्यायालय में चुनावी बॉन्ड की गोपनीयता को लेकर बहस चल रही है। सरकार की तरफ से बॉन्ड के जरिए चंदा देने वालों के नाम उजागर करने की आवश्यकता को नकारा जा रहा है वहीं याचिकाकर्ता चाहता है कि पारदर्शिता के मद्देनजर पहिचान सामने आना चाहिए। गत दिवस प्रधान न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ ने पूछा कि बॉन्ड खरीदने वाले का पूरा विवरण भारतीय स्टेट बैंक के पास है तब गोपनीयता कहां रह जाती है ? दरअसल ये एक तरह का वचन पत्र है जिसे बैंक से खरीदकर किसी राजनीतिक दल को दिया जाता है और इसमें चंदा देने वाला उजागर नहीं होता। इसका उद्देश्य नगद चंदे को रोकना था जो काले धन के रूप में होता था। बॉन्ड से जो चंदा मिलता है वह पार्टियों के बैंक खातों में जमा होने से चुनाव आयोग के जरिए जनता को पता चलता है। बॉन्ड खरीदने वालों की पहिचान छिपाने के पीछे सरकारी वकील ने तर्क दिया कि किसी दल को मिलने वाले चंदे का स्रोत जानना मौलिक अधिकार नहीं है और इससे एक दल को चंदा देने वाला दूसरे के कोप भाजन का शिकार हो सकता है। रही बात चुनावी चंदे में पारदर्शिता की तो जब तक देश में काला धन रहेगा तब ये गोरखधंधा चलेगा । आजादी के पहले से बिरला और बजाज जैसे घराने कांग्रेस के आर्थिक स्रोत हुआ करते थे। घनश्याम दास बिरला और जमनालाल बजाज की महात्मा गांधी और पं. जवाहरलाल नेहरू से निकटता किसी से छिपी नहीं रही। कई दशकों तक लाइसेंस राज चलाकर कांग्रेस ने इनके साथ ही कुछ अन्य उद्योगपतियों को जी भरकर उपकृत किया । इंदिरा जी के दौर में प्रणब मुखर्जी के जरिए धीरुभाई अंबानी उभरे । फिर जब पी.वी. नरसिम्हा राव उदारीकरण लेकर आए तो और भी नए समूहों ने पैर जमाए। संचार क्रांति के आने से गैर परंपरागत उद्योगों ने पहिचान बनाई। बीते दो दशक में भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग भी वैश्विक स्तर पर अपनी धाक जमा रहा है। विदेशी कम्पनियां भी खूब कारोबार कर रही हैं । मोबाइल फोन , दवाइयां , अनाज और अन्य चीजों का निर्यात होने लगा है। इस प्रकार देश में अब दो चार उद्योगपति ही धनकुबेर नहीं रहे अपितु संख्या काफी बड़ी हो गई है। इसी तरह चुनाव तंत्र भी साठ – सत्तर के दशक से बहुत आगे निकल आया है। तब राष्ट्रीय नेता तक सड़क मार्ग से दौरे करते थे और आज हेलीकाप्टर और विमान सामान्य बात हो चली है। इन सबसे चुनाव खर्च बढ़ रहा है और राजनीतिक दलों की चंदे की भूख भी। जाहिर है कार्यकर्ताओं और समर्थकों के सहयोग से राजनीति संभव नहीं रही । इस तरह चुनावी चंदे और काले धन में चोली दामन का साथ हो गया है। जब इलेक्टोरल बॉन्ड नहीं थे तब भी रतन टाटा और राहुल बजाज ने चैक से राजनीतिक दलों को चंदा देने की पहल की किंतु उसे ज्यादा समर्थन नहीं मिला । बॉन्ड आने के बाद कम से कम बैंक खातों में आए चंदे की जानकारी तो मिलने लगी। वरना एक जमाने में कांग्रेस के भीतर प्रचलित कहावत , न खाता न बही – जो केसरी कहे वो सही , हर पार्टी पर लागू होती थी।जो कांग्रेस पार्टी भाजपा को मिलने वाले चंदे से बौखलाई है जब वह सत्ता में लंबे समय तक रही तब उसने पारदर्शिता की कभी बात नहीं की। रही बात बॉन्ड दाताओं के नाम उजागर करने की तो क्या हमारे राजनीतिक नेताओं और पार्टियों में इतनी परिपक्वता है कि वे अन्य पार्टियों के समर्थक उद्योगपतियों के प्रति दुर्भावना न रखें ? चूंकि ऐसा होना असंभव है इसलिए चंदे की पारदर्शिता भी सुन्दर सपने जैसा है। जिस दिन बॉन्ड खरीदने वाले की पहिचान जाहिर होने लगेगी उस दिन इसका कारोबार खत्म ही हो जायेगा। एक बात अकाट्य सत्य है कि बिना चंदे के चुनाव सम्भव नहीं। चूंकि देश में बेशुमार काला धन है इसलिए उसका बतौर चंदा उपयोग होना भी जारी रहेगा। जहां तक बात जनता के जानने के अधिकार की है तो जिस तरह नामांकन पत्र में दिए जाने वाले धन – संपत्ति और अपराधों के विवरण का कोई संज्ञान नहीं लिया जाता उसी तरह चंदे संबंधी जानकारी से आम जनता को कुछ भी लेना देना नहीं है। इस बारे में सबसे हास्यास्पद बात चुनाव में प्रत्याशी द्वारा किए जाने वाले खर्च की सीमा का निर्धारण है। चुनाव आयोग जितनी राशि लोकसभा चुनाव में खर्च करने की अनुमति देता है उससे ज्यादा तो पार्षद के चुनाव में अनेक प्रत्याशी खर्च कर देते हैं ।