संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
एनसीईआरटी (राष्ट्रीय शैक्षिक और अनुसंधान परिषद ) द्वारा अपनी पुस्तकों में देश का नाम इंडिया को जगह भारत लिखने की सिफारिश एक सार्थक कदम है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अंतर्गत पाठ्यक्रम में विषयों के नाम बदलने की प्रक्रिया चल रही है। उदाहरण के तौर पर प्राचीन इतिहास के स्थान पर शास्त्रीय इतिहास लिखने और भारत का ज्ञान नामक पुस्तक का प्रकाशन किया जाना है। विशेषज्ञों के साथ ही राज्यों से भी इस बारे में अभिमत लिया गया जिनमें से कुछ ने बदलाव के प्रति असहमति व्यक्त कर दी। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने कश्मीरी पंडितों के नरसंहार जैसी घटनाओं को पाठ्यक्रम में रखे जाने की पिछली सरकार की सिफारिश वापस ले ली। वहीं अनेक गैर भाजपा राज्य सरकारें अंधविश्वास से बचने की पक्षधर हैं तो कुछ संतुलन बनाए रखने की। इसमें दो मत नहीं हैं कि पाठ्यक्रम की वस्तु का धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों ने जमकर सत्यानाश किया। दूसरा नुकसान अंग्रेजियत में वे तबके के हाथों हुआ। दुर्भाग्य से आजादी के बाद साम्यवादी विचारधारा के चुनिन्दा लोग शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में घुस आए जिन्हें पंडित नेहरू ने प्रोत्साहित किया जो खुद सोवियत संघ की साम्यवादी क्रांति से प्रभावित थे। इसके अलावा विदेशों में शिक्षित लोग शिक्षा -शास्त्री बनकर व्यवस्था में बैठ गए और ज्ञान विज्ञान का सारा श्रेय पश्चिम को देते हुए अंग्रेजी को प्रगतिशीलता की निशानी बना दिया। इस वजह से भारत के इतिहास, पौराणिक ग्रंथों, महानायकों और उपलब्धियों पर उपेक्षा की धूल डाली जाती रही। भारत के महान साहित्यकारों, कलाकारों और उनकी कलाओं को नजरंदाज किया जाने लगा। देश के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगाने वाले महाराणा प्रताप की बजाय अकबर को महान बताया जाने लगा। गुलाम मानसिकता के प्रतीक चिन्ह मार्ग देश की राजधानी में बाबर हुमायूँ औरंगजेब के नाम पर बनाए गए प्रशासन में भी भारतीय संस्कृति को पिछड़ेपन से जोड़कर देखने वाले कथित आधुनिक भर गए। वर्तमान दुरावस्था का सबसे बड़ा कारण शिक्षा पद्धति और पाठ्यक्रम ही है जिसने हमारे इतिहास और संस्कृति के गौरवशाली पक्ष पर परदा डालते हुए निराशाजनक पहलुओं को उभारने का प्रयास किया। केंद्र में मोदी सरकार आने के बाद नई शिक्षा नीति पर काम शुरू हुआ और अब जाकर पाठ्यक्रम में सकारात्मक बदलाव और सुधार किए जाने की प्रक्रिया प्रारंभ होने जा रही है। प्राचीन ग्रंथी पर शोध कार्य को यदि प्रोत्साहन और संरक्षण दिया गया होता तो युवा पीढ़ी को पश्चिम से प्रभावित होने से रोका जा सकता था। लेकिन प्रतिभा पलायन का जो सिलसिला आजादी के बाद शुरू हुआ उसे रोकने के लिए सार्थक प्रयास कभी हुए ही नहीं क्योंकि हमारे नीति नियंता हो भारतीयता को लेकर हीन भावना से ग्रसित रहे। उस दृष्टि से एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम और पुस्तकों का भारतीयकरण किया जाना 21 वीं सदी को भारत के नाम लिखने के लिए नितांत जरूरी है। हजारों साल पहले भारत में विज्ञान और तकनीक का जो विकास हुआ वह उन मंदिरों में देखा जा सकता है जिनकी अभी तक उपेक्षा होती रही। आजकल भारत की प्राचीन स्थापत्य और वास्तु कला के सैकड़ों ऐसे स्मारकों की जानकारी आ रही है जिनके सामने ताजमहल तुच्छ है। उनके निर्माण में जिस इन्जीनियरिंग कौशल और खगोलीय ज्ञान का उपयोग किया गया उसे देखकर पश्चिम के वैज्ञानिक भौचक रह जाते हैं किंतु हमारे देश में मुगल इतिहास और वामपंथी विचारधारा से प्रभावित शिक्षा शास्त्रियों को वह सब महत्वहीन प्रतीत होता है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में जिन प्रसंगों का विवरण है उनका समुचित अध्ययन कर
जबलपुर, गुरुवार 26 अक्टूबर 2023 ईमानदारी से शोध किया जाए तो ये साबित किया जा सकता है कि आज पश्चिम जिन बातों के आधार और खुद को श्रेष्ठ समझता है वे सब भारतीय ज्ञान परंपरा का अभिन्न अंग रहीं। लेकिन कालांतर में राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के कारण राष्ट्र के व्यापक हितों को उपेक्षित किए जाने से हमारे सीमांत असुरक्षित हुए जिससे विदेशी लुटेरों के हमले होने लगे जो भारत की संपन्नता के किस्से सुनकर लूटपाट करने आते और लौट जाते। धीरे- धीरे उन्हें लगा कि यहां के शासक संकीर्ण मानसिकता के शिकार हैं जिसने उनको बार- बार आने के अवसर दिए । अंततः वे यहां राज करने के इरादे पाल बैठे जिससे सैकड़ों वर्षों के लिए गुलामी ने हमें जकड़ लिया। उसी का दुष्परिणाम प्राचीन ज्ञान विज्ञान, कला और संस्कृति पर विदेशी प्रभाव के रूप में देखा जा सकता है। 1193 में बख्तियार खिलजी नामक एक मुस्लिम आक्रांता ने नालंदा के पुस्तकालय को आग के हवाले कर दिया ताकि हमारी समूची ज्ञान संपदा भस्म हो जाए। इसी तरह मुस्लिम शासकों ने ऐतिहासिक मंदिरों एवं सांस्कृतिक केंद्रों को ध्वस्त किया जिससे भारत को धार्मिक सांस्कृतिक जड़ें नष्ट हो जाएं। अंग्रेजों ने तोड़मेड़ तो नहीं की किंतु हमारे अभिजात्य वर्ग में भारतीयता के प्रति हीन भावना का बीजारोपण जरूर कर दिया जिसका असर अभी भी स्पष्ट नजर आता है। देश का वह वर्ग जो अंग्रेजी के चार अक्षर भी लिख पढ़ नहीं सकता वह भी अंग्रेजियत से जुड़ने की कोशिश करता है। इससे जो नुकसान हुआ उसका आकलन करना बेहद कठिन है किंतु समय आ गया है जब शिक्षा, कला, साहित्य और संस्कृति का भारतीयकरण किया जाए। एनसीईआरटी द्वारा इस दिशा में प्रारंभ किए गए प्रयास को व्यापक समर्थन मिलना चाहिए क्योंकि इसका उद्देश्य भावी पीढ़ी के मन में भारतीयता के प्रति आदर का भाव उत्पन्न करना है।