जब आप कर्नाटक के राजसी नगर मैसूर पहुँचते हैं तो मैसूर पैलेस के साथ-साथ जो स्थान आपको सबसे अधिक आकर्षित करता है वो है 1000 मीटर ऊपर चामुंडा पहाड़ी पर स्थित माँ चामुंडेश्वरी का मंदिर। मैसूर शहर से 13 किलोमीटर दूर ये मंदिर समुद्र तल से करीब 1065 मीटर की उचाई पर है और इतनी उचाई पर मंदिर का निर्माण कर देना ही अपने आप में एक आश्चर्य है। ये मंदिर वास्तुकला का एक अद्वितीय उदाहरण तो है ही, साथ ही साथ इसका पौराणिक महत्त्व भी बहुत अधिक है। मूल रूप से ये मंदिर माँ दुर्गा के एक रूप माँ चामुंडा को समर्पित है और उन्ही पर इसका नामकरण भी है। इसके अतिरिक्त ये 51 शक्तिपीठों और 18 महाशक्तिपीठों में से भी एक है। यहाँ माँ सती के केश गिरे थे और अन्य शक्तिपीठों की तरह भैरव इसकी सदैव रक्षा करते हैं। आज का वर्तमान मंदिर के मूल भाग का निर्माण 12वीं सदी में होयसल राजवंश के शासकों (कदाचित महाराज विष्णुवर्धन) के द्वारा करवाया गया था। वर्तमान मंदिर का निर्माण 16वीं शताब्दी में विजयनगर शासकों द्वारा करवाया गया और 19वीं सदी में मैसूर के राजा द्वारा इसकी मरम्मत कराई गयी। 7 मंजिले इस मंदिर की कुल उचाई करीब 40 मीटर है जो द्रवि? वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण है। जिस स्थान पर मंदिर बना है उसे प्राचीन काल में क्रौंचपुरी के नाम से जाना जाता था और आज भी दक्षिण भारत में इस शक्तिपीठ को क्रौञ्चपीठ के नाम से जाना जाता है। ये मंदिर 1000 साल से भी अधिक पुराना है और कभी ये मैसूर के राजवंश का कुलमंदिर हुआ करता था जहाँ प्रतिवर्ष मैसूर के राजा द्वारा कुलदेवी की पूजा करवाई जाती थी। इस मंदिर के मार्ग में जाते हुए आपको काले ग्रेफाइट से बनी नंदी की विशाल प्रतिमा दिखाई देती है। ये मंदिर माँ दुर्गा द्वारा महिषासुर के वध को समर्पित है। इस मंदिर परिसर में घुसते ही सबसे पहले आपको महिषासुर की एक बड़ी प्रतिमा दिखाई देती है।
कहते हैं इस प्रतिमा को अधिक देर तक नहीं देखना चाहिए नहीं तो असुर आपके पीछे लग जाते हैं। महिषासुर प्रतिमा के बाईं ओर 120 हाथ ऊँचा देवी का मुख्य मंदिर है। इसके मुख्य गर्भगृह में स्थापित देवी की प्रतिमा शुद्ध सोने की बनी हुई है इसी कारण यहाँ सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम रहते हैं। माँ के साथ यहाँ नंदी, हनुमान और महादेव की प्रतिमाएँ भी है। इस मंदिर के पीछे महाबलेश्वर को समर्पित एक मंदिर है जो करीब 1000 वर्ष पुराना है। इस मंदिर के लिए तीन प्रमुख कथाएँ प्रचलित हैं।
महिषासुर : पहली कथा भगवान शिव एवं देवी सती की है। जब देवी सती महादेव के मना करने पर भी अपने पिता दक्ष के यज्ञ में गई और वहाँ अपने पति का अपमान होता देख आत्मदाह कर लिया। तब महारुद्र ने अपने रुद्रावतार वीरभद्र को प्रकट किया जिसने दक्ष के यज्ञ का ध्वंस कर दिया और दक्ष का सर काट लिया। भगवान विष्णु के अनुरोध पर भगवान रूद्र ने बकरे का सर जोड़ कर दक्ष को पुनर्जीवित किया ताकि वो यज्ञ पूर्ण कर सके और सती के मृत शरीर को लेकर वियोग में इधर-उधर घूमने लगे। तब नारायण ने अपने सुदर्शन चक्र से देवी के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए और जहाँ-जहाँ उनके अंग गिरे वो शक्तिपीठ कहलाया। तब महादेव ने भैरवों की उत्पत्ति की और सबको शक्तिपीठों की सुरक्षा के लिए तैनात कर दिया। चामुंडेश्वरी देवी के मंदिर में माँ सती के केश गिरे थे जिस कारण ये एक शक्तिपीठ भी है। दूसरी कथा महिषासुर से जुड़ी है जिसे ब्रह्मदेव का आशीर्वाद था कि उसका वध केवल एक स्त्री ही कर सकती थी। तब त्रिदेवों के तेज से देवी दुर्गा की उत्पत्ति हुई जिसे समस्त देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र दिए और फिर उस सर्वशक्तिशाली देवी ने नौ दिनों तक उस राक्षस से युद्ध करने के बाद उसका वध कर दिया। ऐसी मान्यता है कि महिषासुर का वध इसी जगह हुआ था। तीसरी कथा के अनुसार महिषासुर की मृत्यु के पश्चात दो दैत्यों शुम्भ और निशुम्भ ने देवी दुर्गा के रूप पर मुग्ध होकर उनसे विवाह की याचना की। माँ के धिक्कारे जाने पर उन्होंने अपने योद्धाओं धूम्रलोचन एवं रक्तबीज को भेजा जिसका वध क्रमशः देवी दुर्गा और देवी काली द्वारा हुआ। तब उन्होंने अपने वीर सेनापतिओं चण्ड-मुण्ड को भेजा जिसका वध करने के कारण माँ दुर्गा चामुण्डा अथवा रक्तकाली भी कहलाई। इसी नाम पर इनके इस स्वरुप का नाम भी है। ईएमएस