डा. मुखर्जी के आंदोलन के प्रति नेहरू और शेख अब्दुल्ला का नजरिया निराशाजनक था

डा. मुखर्जी के आंदोलन के प्रति नेहरू और शेख अब्दुल्ला का नजरिया निराशाजनक था
डा. मुखर्जी के आंदोलन के प्रति नेहरू और शेख अब्दुल्ला का नजरिया निराशाजनक था

भारत में जम्मू-कश्मीर का अधिमिलन 26 अक्टूबर, 1947 को हो चुका था। फिर भी 1952 तक वहां भारतीय संविधान में निहित मौलिक एवं नागरिक अधिकार, वित्तीय एकीकरण, सीमा शुल्क का उन्मूलन, उच्चतम न्यायालय का न्यायिक क्षेत्र, राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियां, चुनावों का संचालन और भारत के ध्वज की सर्वोच्चता जैसे प्रावधान लागू नहीं किए जा रहे थे। इसका कारण शेख अब्दुल्ला की जम्मू- कश्मीर को स्वायत्त बनाने की जिद्द थी। उपरोक्त विषयों पर देश में पहली बार चर्चा दिसंबर 1952 के भारतीय जनसंघ ने अपने कानपुर अधिवेशन में की। इस अधिवेशन कि अध्यक्षता डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी कर रहे थे। उन्हें जिम्मेदारी दी गयी कि वे नेहरू और शेख को पत्र लिखकर राज्य के संवैधानिक प्रश्नों पर समाधान की तलाश करेंगे। राज्य की वास्तविक स्थिति का अवलोकन करने के लिए सात सदस्यों का प्रतिनिधिमंडल भी बनाया गया। हालाँकि भारत सरकार ने इस शिष्टमंडल को वहां जाने की कभी अनुमति ही नहीं दी। डॉ. मुखर्जी को हर दिन शेख सरकार द्वारा संविधान का विरोध और हिन्दुओं के उत्पीड़न की खबरें मिल रही थी। इन बिगड़ते हालातों पर चर्चा के लिए डॉ. मुखर्जी ने प्रधानमंत्री से 6 और 14 फरवरी, 1953 को मुलाकात का समय मांगा, जो नेहरू ने उन्हें नहीं दिया। इस दौरान डॉ. मुखर्जी और प्रधानमंत्री सहित शेख के बीच पत्राचार भी चल रहा था। वह भी बिना किसी ठोस निर्णय के समाप्त हो गया। दरअसल शेख और नेहरू का रवैया नकारात्मक था। दोनों की नड़रों में उन्हें सलाह देने वाला व्यक्ति साम्प्रदायिक होता था। आखिरकार जब सभी कोशिशें
असफल हो रही थी, तो 6 मार्च को दिल्ली में जम्मू- कश्मीर सत्याग्रह की शुरुआत हुई।
यह सत्याग्रह लोगों को जम्मू-कश्मीर के विषयों पर जागरूक कराने का अभियान था। देश भर में सार्वजनिक सभाएं आयोजित की गई। पत्रकारों के माध्यम से सरकार से सवाल पूछे जाने लगे। जनसंघ द्वारा कई पुस्तकों का प्रकाशन किया गया। संसद में सरकार को राज्य के तमाम मुद्दों पर घेरा जाने लगा। इससे जल्दी ही देश में राज्य के प्रति सजगता आने लगी। जो निर्णय कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के कार्यालयों में बंद दरवाजों के पीछे होते थे, वह अब उजागर होने लगे। ऐसे में सरकार के लिए असहज होना स्वाभाविक था । इसलिए हड़ारों की संख्या में सत्याग्रहियों को गिरफ्तार किया गया। डॉ. मुखर्जी ने लगभग पूरे भारत का दौरा किया था। गृह मंत्रालय की इंटेलिजेंस रिपोर्ट्स के अनुसार उनकी सभाओं में व्यापक संख्या में लोग रहते थे। भीड़ इतनी रहने लगी कि पुलिस को उन्हें तितर-बितर करने के लिए लाठीचार्ज तक करना पड़ता था। (राष्ट्रीय अभिलेखागार, मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स, 8 (20)-K/53) प्रधानमंत्री नेहरू ने सत्याग्रह के प्रभाव को कम करने की योजना बना रखी थी। केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री बी.वी. केसकर को उन्होंने एक पत्र लिखा, ऑल इंडिया रेडियो को जम्मू की घटनाओं के लिए थोड़ी सावधानी बरतनी होगी और हमें इस आन्दोलन को किसी भी प्रकार से प्रोत्साहित नहीं करना है। इसके विपरीत सदर-ए- रियासत कर्ण सिंह ने उसी दिन प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सुझाव दिया, इस आन्दोलन के प्रति सरकार का नकारात्मक और निराशात्मक व्यवहार एकदम गलत है। सदर-ए-रियासत क इसके लिए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण की जरुरत है। ( नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी, जे.एन. एस. जी. 159-1) इस सलाह को अनसुना कर दिया गया। केंद्र सरकार के इशारे पर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब और राज्य सरकारों ने धारा 144 का अनियंत्रित तरीके से प्रयोग होने लगा। सत्याग्रहियों पर दमन की नीतियाँ अपनाई गयी । फिर भी सत्याग्रहियों ने किसी असामजिक अथवा अप्रिय घटना को नहीं होने दी। गृह मंत्रालय की 5 मार्च, 1953 की एक रिपोर्ट के इस बात की पुष्टि करती है, आन्दोलन के दौरान सभी कार्यकर्ताओं को महात्मा गाँधी के अहिं के रास्ते पर चलने को कहा गया था । ( राष्ट्रीय अभिलेखागार, मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स, 8 ( 20 )-K/53)। सरकार ने पहले बातचीत के रास्ते बंद कर दिए थे। उसके बाद सत्याग्रह को कुचलने के लिए सभी तरीकों पर काम करना शुरू कर दिया। जब कोई विकल्प ही नहीं बचा तो डॉ. मुखर्जी ने दोबारा जम्मू-कश्मीर जाने की सार्वजनिक घोषणा की। दौरे के पीछे का एकमात्र उद्देश्य ऐसी संभावनाओं का निर्माण करना था जिससे शांतिपूर्ण और सम्मानीय समाधान खोजा जा सके। डॉ. मुखर्जी दिल्ली से 8 मई को रवाना हुए। उन्होंने शेख को अपने आने की इच्छा और प्रयोजन बताने के लिए एक टेलीग्राम भेजा । अगले ही दिन शेख ने वह टेलीग्राम दिल्ली में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को भेजा दिया । ‘ प्रधानमंत्री नेहरू ने इस बार अधिक कठोर रुख अपना लिया था। गृह मंत्री कैलाश नाथ काटजू को 8 मई को ही उन्होंने पत्र लिख कर सभी उच्च अधिकारियों को दिल्ली बुलाने को कहा । इस बैठक में गृह मंत्रालय एवं विधि मंत्रालय के सचिव और उप-सचिव; राज्यों का मंत्रालय के संयुक्त सचिव और उप-सचिव; इंटेलिजेंस ब्यूरो के सह-निदेशकों और सहायक निदेशक, पंजाब, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य भारत, एवं राजस्थान के गृह सचिवों, डी.आई.जी. और सी.आई.डी.; मध्य प्रदेश के मुख्य सचिव, डी.आई.जी., और सी. आई.डी.; बिहार के अतिरिक्त सचिव और डी.आई.जी. और सी. आई.डी.; पेप्सू के एस.पी. और सी. आई.डी.; और दिल्ली के मुख्य आयुक्त, सह-आयुक्त और पुलिस महानिरीक्षक इस शामिल रहे। (नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी, जे. एन. एस. जी. 178-II) दिल्ली में उच्च स्तरीय बैठक से अंदाजा लगाया जा सकता है कि डॉ. मुखर्जी का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। वहीं इसका दूसरा पहलू भी था कि सरकार ने उनके खिलाफ कार्रवाई करने का मन बना लिया था । प्रधानमंत्री लगातार डॉ. मुखर्जी पर नजर रख रहे थे । उन्होंने पंजाब के मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर को पत्र लिख कर कहा कि मुझे उनके इस पूरे दौरे की एक रिपोर्ट चाहिए, उन्होंने क्या कहा और उसका क्या प्रभाव हुआ। (नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी, जे. एन. एस. जी. 178 – II ) इस बीच वर्तमान हरियाणा और पंजाब के कई शहरों से होते हुए डॉ. मुखर्जी 10 मई को अमृतसर पहुंच चुके थे। वहां एक रात बिताने के बाद अगले दिन वे पठानकोट पहुंचे। उस समय तक उन्हें शेख अब्दुल्ला का जवाब मिल चुका था । शेख ने अपने टेलीग्राम में उनकी यात्रा को दुराग्रही बताया। उसी टेलीग्राम में दुराग्रही शब्द काटकर असामयिक’ कर दिया। जैसा सरकार ने तय कर रखा था, उसी के अनुसार पंजाब और जम्मू-कश्मीर सीमा पर 11 मई को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी का आधार परमिट का होना नहीं था। जम्मू-कश्मीर सरकार के मुख्य सचिव एम. के किदवई ने लोकसभा स्पीकर को टेलीग्राम और पत्र लिखकर बताया कि डॉ. मुखर्जी को पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट की धारा 3 के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया है। (राष्ट्रीय अभिलेखागार, मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स, 1 ( 5 )-K/53) डॉ. मुखर्जी हिरासत में लेने के लिए नेशनल कांफ्रेंस के सचिव मौलाना मसूदी राज्य की पुलिस के साथ मौजूद थे। इस गिरफ्तारी को साजिश के तौर पर देखा गया। समाचार पत्रों ने खुलकर सरकार पर आरोप लगाया कि जनसंघ के नेता की गिरफ्तारी के पीछे नेहरू का हाथ है। (अमृत बा ?ग़र पत्रिका, 13 मई, 1953 ) डॉ. मुखर्जी की अभिलाषा कानून की अवेहलना करना नही था । उनका मकसद बस इतना था कि शेख राज्य के लिए पृथक दर्जे की मांग न करे, जबकि 562 रियासतों के भारत का साथ पूर्ण अधिमिलन हो चुका हैं।

प्रस्तुति : देवेश खंडेलवाल