संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
सर्वोच्च न्यायालय ने म.प्र और राजस्थान के साथ ही केंद्र सरकार तथा रिजर्व बैंक को नोटिस भेजकर चुनाव पूर्व मुफ्त सौगातों पर चार सप्ताह में उत्तर मांगा है। प्रधान न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए उक्त आदेश दिया। साथ ही इस बारे में पहले पेश की जा चुकी याचिकाओं की सुनवाई एक साथ करने की बात भी कही। इन याचिकाओं का सार ये है कि राज्य की वित्तीय स्थिति का ध्यान किए बिना जो खैरात बांटी जाती है उससे करदाताओं पर बोझ बढ़ता है। पुराने घाटे के बावजूद नए कर्ज का बोझ लादकर सत्ताधारी नेता चुनाव आते ही जो मांगोगे वही मिलेगा की तर्ज पर खजाना खोल देते हैं । सर्वोच्च न्यायालय में इसके पहले से जो याचिकाएं पेश हुईं उनके बाद भी अनेक राज्यों के चुनाव संपन्न हुए जिनमें चुनाव पूर्व खैरातें बांटने के साथ ही मुफ्त उपहारों के वायदे किए गए। उस समय ही सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव आयोग सख्ती दिखाते तो बात इतनी आगे न बढ़ती। वैसे ये बीमारी अब भारतीय राजनीति से स्थायी तौर पर जुड़ चुकी है। विपक्ष सत्ताधारी दल पर खजाना खाली करने का आरोप लगाए बिना नहीं थकता किंतु खुद उससे अधिक मुफ्तखोरी का वायदा करने में नहीं चूकता। कर्नाटक में कांग्रेस ने जो वायदे किए थे सत्ता में आते ही उनको पूरा करने की इच्छाशक्ति भी दिखाई किंतु जल्द ही केंद्र से मदद प्राप्त न होने का बहाना बनाया जाने लगा। संदर्भित याचिकाओं में करदाता के पैसे से मुफ्त उपहार बांटने पर रोक की मांग की गई है। राजस्थान और म. प्र की सरकारों द्वारा बीते कुछ महीनों में जिस दरियादिली से जनता को नगद पैसा और सुविधाएं प्रदान की गईं उनका उद्देश्य निश्चित रूप से चुनाव जीतना है । याचिकाकर्ता के अनुसार इस बारे में कोई सीमा रेखा तो होनी ही चाहिए। हालांकि मुफ्त रेवड़ियां बांटने के बारे में सभी दल एक ही नाव पर सवार हैं । फर्क इतना है कि उनके बीच ये प्रतिस्पर्धा चल रही है कि कौन कितना ज्यादा बांटेगा। मसलन राजस्थान में कांग्रेस की गहलोत सरकार ने 500 रु. में रसोई गैस सिलेंडर देने की व्यवस्था की तो म.प्र में कांग्रेस ने सत्ता में आने पर वैसा ही वायदा कर डाला। जवाब में म.प्र की शिवराज सरकार ने 450 रु .में सिलेंडर देकर कांग्रेस के दांव को बेअसर कर दिया । इसी तरह म.प्र में कांग्रेस ने गरीब महिलाओं को 1500 रुपए प्रति माह देने के वायदे के साथ उनसे आवेदन भरवाने का अभियान चलाकर महिला मतदाताओं को अपने पाले में खींचने का पैंतरा चला तो प्रदेश की भाजपा सरकार ने लाड़ली बहना योजना शुरू करते हुए 1000 रुपए प्रति माह देने की शुरुआत कर दी और उसे 3000 रुपए तक ले जाने का आश्वासन देते हुए 1250 तक पहुंचा भी दिया। याचिका में चुनाव के कुछ समय पहले से रेवड़ी वितरण पर आपत्ति जताई गई है लेकिन चुनाव आते ही सरकारी कर्मचारी भी आंदोलन रूपी दबाव बनाते हैं जिनकी नाराजगी से बचने के लिए उनकी मांगें सरकार मंजूर कर लेती है। इस बारे में देखने वाली बात ये है कि सरकार चूंकि पांच साल के लिए चुनी जाती है इसलिए उस अवधि के दौरान वह नीतिगत निर्णय तो कर ही सकती है। चुनाव की तारीख का ऐलान हो जाने के बाद भले ही उसे वैसा करने से रोका जाता है और वह गलत भी नहीं है किंतु अदालत में बैठे न्यायाधीश भी तो सेवानिवृत्ति के कुछ घंटों पहले तक ऐसे मामलों में फैसला देते हैं जिनके नीतिगत दूरगामी परिणाम होते हैं। ऐसे अनेक फैसलों पर उंगलियां भी उठती रही हैं। उस लिहाज से सत्ताधारी यदि चुनावी वर्ष में जनता को फायदा पहुंचाने के लिए नीतियां बनाते और निर्णय लेते हैं तब जनहित के आधार पर उन्हें गलत नहीं माना जा सकता । रही बात आर्थिक प्रबंधन की है तो वह निश्चित रूप से चिंता और चिंतन दोनों का विषय है। सरकार के अलावा व्यवसायिक प्रतिष्ठान अथवा व्यक्ति के लिए ये जरूरी होता है कि वह जितनी चादर उतने पांव फैलाने की सीख का पालन करे जिससे उस पर कर्ज का बोझ न बढ़े । हालांकि लोक कल्याणकारी राज्य में जनता को सुख – सुविधा प्रदान करना सरकार का प्राथमिक दायित्व है लेकिन उसकी सीमा और स्वरूप भी तय होना चाहिए । अतीत में सर्वोच्च न्यायालय ने ही कहा था कि सरकारी गोदामों में सड़ाने से बेहतर है अनाज गरीबों को बांट दिया जावे। धीरे – धीरे बात बढ़ते हुए नगदी वितरण तक आ गई। चिंता इस बात को लेकर है कि मुफ्त सुविधाओं का दायरा सुरसा के मुंह की तरह विस्तार लेता जा रहा है। यदि इन्हें आर्थिक अनुशासन से न जोड़ा गया तब बड़ी बात नहीं आने वाले समय में इन पर पूर्ण विराम लगा दिया जाए। कोरोना के दौरान रेलवे टिकिट में मिलने वाली रियायतें इसी आधार पर बंद कर दी गईं जो आज तक शुरू नहीं की जा सकीं। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय को इस याचिका पर फैसला लेते समय विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देना होगा क्योंकि जनता को मिलने वाली मुफ्त सुविधाओं को बंद करने के पहले सांसदों , विधायकों ,मंत्रियों और न्यायाधीशों को मिल रही राजसी सुविधाएं बंद करने पर भी विचार करना चाहिए क्योंकि उनका बोझ भी तो आखिर करदाता पर ही पड़ता है।