संपादकीय- रवीन्द्र वाजपेयी
संविधान दिवस के अवसर पर आयोजित समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी. वाय.चंद्रचूड़ की उपस्थिति में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा प्रारंभ किए जाने की जरूरत बताते हुए न्यायिक नियुक्ति आयोग के मुद्दे को गर्म कर दिया। राष्ट्रपति ने स्पष्ट कहा कि इससे वंचित पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को मदद मिलेगी । उल्लेखनीय है श्री चंद्रचूड़ सहित सर्वोच्च न्यायालय के ज्यादातर न्यायाधीश मौजूदा कालेजियम प्रणाली के पक्षधर हैं। श्रीमती मुर्मू ने स्पष्ट तौर पर कहा कि ऐसी प्रणाली विकसित की जाए जिसमें योग्यता आधारित , प्रतिस्पर्धी तथा पारदर्शी चयन प्रक्रिया के जरिए विभिन्न पृष्ठभूमि से आए लोगों का चयन बतौर न्यायाधीश किया जा सके। राष्ट्रपति ने अ.भा प्रशासनिक और पुलिस सेवा की तरह ही न्यायिक सेवा के सृजन का जो मुद्दा छेड़ा वह केंद्र सरकार और न्यायपालिका के बीच लंबे समय से तनाव का कारण बना हुआ है। हालांकि किरण रिजजू को कानून मंत्री पद से हटाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अघोषित युद्धविराम का संकेत दिया था किंतु उसके बाद भी न्यायाधीशों की नियुक्ति में विलंब को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच खटपट होती रही है। अनेक अवसरों पर तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चेतावनी दिए जाने के बाद सरकार ने मजबूरी में नियुक्ति को अंतिम रूप दिया। ऐसा लगने लगा था कि केंद्र सरकार इस विवादास्पद विषय में न्यायपालिका से टकराव को टालना चाह रही है। लेकिन संविधान दिवस जैसे महत्वपूर्ण आयोजन में देश की संवैधानिक प्रमुख द्वारा मुख्य न्यायाधीश के समक्ष न्यायिक सेवा की आवश्यकता जताने से ये मुद्दा एक बार फिर चर्चा में आ गया है। यदि यह बात किसी और ने कही होती तो अब तक श्री चंद्रचूड़ सहित कालेजियम प्रणाली के समर्थकों की ओर से प्रत्याक्रमण हो चुका होता। हालांकि श्रीमती मुर्मू पर ये आरोप तो लगेगा ही कि उन्होंने सरकार की मंशा को ही व्यक्त किया किंतु दूसरी तरफ ये भी सही है कि समाज के वंचित कहे जाने वाले वर्ग को न्यायिक क्षेत्र में आगे बढ़ने का समुचित अवसर नहीं मिल पाता। राष्ट्रपति ने इसीलिए इस बात का उल्लेख किया कि सिविल सेवाओं में जाने वाले अनेक प्रतिभाशाली अभ्यर्थी भी न्यायपालिका में आना चाहते हैं किंतु न्यायिक सेवा जैसी व्यवस्था के अभाव में उन्हें अवसर नहीं मिल पाता। निश्चित तौर पर ये गंभीर मुद्दा बनता जा रहा है। कालेजियम प्रणाली चूंकि संविधान के अंतर्गत न होकर आजादी के 46 साल बाद 1993 में लागू की गई इसलिए उसे पत्थर की लकीर मान लेना न्यायोचित नहीं होगा। उस पर ये आरोप लगातार लगते रहे हैं कि इसके जरिए न्यायपालिका में भी परिवारवाद हावी होता जा रहा है। वर्तमान मुख्य न्यायाधीश श्री चंद्रचूड़ के पिता भी इसी पद पर सबसे अधिक समय तक रहे। ये जरूर कहा जा सकता है कि न्यायपालिका का विधायिका और कार्यपालिका के साथ टकराव पूर्वापेक्षा बढ़ा है । हालांकि इसकी शुरुआत तो इंदिरा गांधी के समय से ही हो चुकी थी जब कांग्रेस में चली वर्चस्व की लड़ाई में उनके द्वारा लिए गए कुछ नीतिगत निर्णयों को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया था। उसके बाद प्रतिबद्ध न्यायपालिका की बात तक कही जाने लगी। अनेक न्यायाधीश ऐसे भी उच्च और सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्त हुए जिनकी पृष्ठभूमि तत्कालीन सत्तापक्ष के अनुकूल थी । लेकिन 1993 में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण हेतु बनाई गए कालेजियम प्रणाली के बाद चयन प्रक्रिया पर पूरी तरह से न्यायपालिका का ही एकाधिकार हो गया। केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद इस व्यवस्था के विकल्प के तौर पर लोकसेवा आयोग की तरह न्यायिक नियुक्ति आयोग के सृजन का प्रस्ताव लोकसभा में सर्वसम्मति से पारित हुआ जबकि राज्यसभा में केवल एक मत विरोध में पड़ा। इतने प्रबल समर्थन के बाद भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उस फैसले को रद्द करने का फैसला ये साबित करने के लिए पर्याप्त है कि न्यायपालिका अपना वर्चस्व छोड़ने तैयार नहीं है। बहरहाल अब चूंकि राष्ट्रपति ने न्यायिक सेवा का सुझाव दिया है इसलिए इस बात की संभावना व्यक्त की जाने लगी है कि आगामी लोकसभा चुनाव के बाद यदि श्री मोदी पुनः सत्ता में लौटे तब वे इस दिशा में निर्णायक कदम उठा सकते हैं । श्रीमती मुर्मू का वक्तव्य उसी का संकेत है।