बिहार से लालू प्रसाद यादव यादव की पार्टी राजद के राज्यसभा सदस्य मनोज झा प्रभावशाली वक्ता हैं। जेएनयू में अध्यापन कर चुके हैं। सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर उच्च सदन में उनके भाषण दमदार होते हैं जिनमें वे अपनी पार्टी की विचारधारा का प्रस्तुतीकरण आकर्षक शैली में करते हैं। ये कहने में कुछ भी गलत नहीं है कि श्री झा राज्यसभा के उन चंद सदस्यों में से हैं जो विषय का अध्ययन करने के उपरांत अपनी बात रखते हैं। उनके साथ कोई विवाद भी नहीं जुड़ा। लेकिन संसद के हाल ही में संपन्न विशेष सत्र में महिला आरक्षण संबंधी विधेयक पर बोलते हुए श्री झा ने ओबीसी के अलावा अजा – अजजा के लिए भी आरक्षण की मांग करते हुए एक कविता पढ़ी जिसमें इस बात का उल्लेख था कि ग्रामीण क्षेत्र में सभी चीजें मसलन खेत , तालाब , घर आदि ठाकुर (अर्थात जमींदार ) के आधिपत्य में है किंतु खेतों के अलावा बाकी सभी में कार्यरत श्रमिक पिछड़ी और दलित जातियों के हैं। आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग रखते हुए श्री झा ने उक्त कविता के जरिए पूरे सदन से अपील की कि अपने भीतर बैठे ठाकुर को मारें। जाहिर है उनका मंतव्य सामंतवादी सोच से बाहर निकलकर समतामूलक समाज की स्थापना का था जिसमें संसाधनों का न्यायोचित वितरण और श्रम का सम्मान सुनिश्चित किया जा सके। महिला आरक्षण में ओबीसी और अजा-अजजा के लिए भी कोटा की मांग राजद के साथ ही मंडलवादी अन्य दल शुरू से करते आ रहे हैं। यूपीए सरकार के समय भी इसी मुद्दे पर गतिरोध पैदा होता रहा। यद्यपि इस बार कांग्रेस ने भी इस मांग का समर्थन किया किंतु महिला विरोधी होने के आरोप से बचने के लिए विधेयक को रोकने की हिम्मत किसी की नहीं हुई और लोकसभा के बाद राज्यसभा ने भी उस पर मोहर लगा दी जबकि सरकार के पास उच्च सदन में स्पष्ट बहुमत नहीं है। हालांकि संसद और विधानमंडलों में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण के लिए 2029 तक प्रतीक्षा करनी होगी । इसीलिए सत्र के बाद विपक्ष ने केंद्र सरकार पर महिला आरक्षण के नाम पर रस्म अदायगी का आरोप लगाते हुए इसे तत्काल लागू करने का दबाव बनाया । वहीं भाजपा इस बात का श्रेय ले रही है कि जो काम विपक्ष की सरकारें दशकों तक नहीं कर सकीं वह मोदी सरकार ने आसानी से कर दिखाया। लेकिन इस विधेयक पर श्री झा द्वारा दिए भाषण में ठाकुर संबधी जिस कविता का उल्लेख किया गया उसे लेकर बिहार के क्षत्रिय नेता आक्रामक हो गए हैं। बाकी को तो छोड़ दें लेकिन श्री झा की अपनी पार्टी राजद के बाहुबली नेता आनंद मोहन और उनके विधायक बेटे के अलावा भाजपा के अनेक नेताओं ने श्री झा के विरुद्ध मोर्चा खोलते हुए उन्हें याद दिलाया कि ठाकुरों ( क्षत्रियों ) ने देश की रक्षा में अपना बलिदान दिया है। एक – दो नेताओं ने तो यहां तक कह दिया कि यदि श्री झा ने उनके सामने बयान दिया होता तो उनका मुंह तोड़ देते। यद्यपि श्री झा ने इन आलोचनाओं के प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहा किंतु इससे लालू प्रसाद यादव की पार्टी की असलियत सामने आ गई । उसके एक ब्राह्मण नेता द्वारा राज्यसभा में सामाजिक व्यवस्था पर उच्च जातियों के वर्चस्व के बारे में जो प्रतीकात्मक कविता पढ़ी गई उस पर मंडलवादी दल के भीतर से ही ब्राह्मण विरुद्ध क्षत्रिय की आवाजें सामने आने लगीं। डा.लोहिया की वैचारिक विरासत के दावेदारों पर दायित्व था जाति तोड़ने का किंतु तमाम दिखावों के बावजूद वे उसके दायरे से बाहर नहीं निकल सके और समतामूलक समाज की बजाय जातिगत वैमनस्य के बीज बोने का अपराध कर बैठे। श्री झा ने जिस उद्देश्य से कविता सुनाई उसमें निश्चित रूप से ठाकुर से अभिप्राय किसी जाति विशेष से न होकर ग्रामीण समाज में उच्च जातियों के वर्चस्व से था जिसे उन्होंने नव सामंतवादी मानसिकता से जोड़ते हुए उससे बाहर आने की बात कही। ऐसे में उनको क्षत्रिय विरोधी बताकर मुंह तोड़ देना और और जुबान नोच लेने जैसी टिप्पणियां दर्शाती हैं कि राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले लोग जाति रूपी दीवारें गिराने के बजाय उन्हें और ऊंचा करने पर आमादा हैं। इसीलिए अब जातियों के भीतर से उपजातियां नए दबाव समूह के तौर पर सामने आने लगी हैं और 21 वीं सदी का भारत 18 वीं सदी की सोच से बाहर नहीं निकल पा रहा। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात ये है कि हर बात पर मुंह खोलने को आतुर लालू जी और उनके बड़बोले पुत्र तेजस्वी अपने कथित समतावादी दल के भीतर चल रही ब्राह्मण विरुद्ध ठाकुर लड़ाई पर मौन साधे हुए हैं। इससे लगता है कि पार्टी जानबूझकर इस विवाद को हवा देना चाहती है जिससे वह पिछड़ी जातियों को भड़का सके।इस बारे में उल्लेखनीय है कि विवाद में शामिल ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों नेता लालू जी के बेहद करीबी हैं। चिंता का विषय है कि बिहार की राजनीति जातियों के जंजाल से निकल नहीं पा रही। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जिस सामाजिक क्रांति की उम्मीद लगाई गई थी वह हवा – हवाई होकर रह गई और उसकी जगह जातिगत घृणा का नया रूप सामने आ गया। मनोज झा के भाषण पर जिस तरह की उग्र प्रतिक्रियाएं सुनने मिल रही हैं वे अच्छा संकेत नहीं है।
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