जब आप कहीं गलती करते हैं, तो आपके हितैषी लोग आपको दुखों और समस्याओं से बचाने के लिए बहुत अच्छे-अच्छे सुझाव देते हैं। परंतु सामान्य रूप से व्यक्ति अपनी गलतियां सुनना नहीं चाहता, उन्हें दूर करना नहीं चाहता। क्योंकि उसे सुनने में कष्ट लगता है। कुछ अपमान अनुभव होता है। इस कारण से वह अपनी गलतियां भी सुनना नहीं चाहता, और उन्हें दूर करने के लिए सुझाव भी सुनना नहीं चाहता। जबकि अनेक बार वे सुझाव उसके लिए बहुत अधिक हितकारी होते हैं। फिर भी वह अपनी मूर्खता अज्ञानता या अभिमान के कारण दूसरों के उत्तम सुझाव भी ध्यान से नहीं सुनता, और उनसे कोई लाभ नहीं उठाता। यह स्थिति अच्छी नहीं है। दूसरी बात – जब कोई व्यक्ति आपकी प्रशंसा करता है, चाहे वह सच्ची हो, चाहे झूठी हो, उसे आप बड़े ध्यान से सुनते हैं। बड़े प्रसन्न होते हैं। और सच में अपने आप को वैसा मान ही लेते हैं, जैसी वह व्यक्ति आपकी प्रशंसा कर रहा है। यह स्थिति भी अधिक अच्छी नहीं है। यदि कोई आपकी सच्ची प्रशंसा करता है, तब तो चलो कुछ ठीक भी है। परंतु यदि कोई झूठी प्रशंसा करता है, और तब भी आप उसे सुनकर बड़े खुश हो जाते हैं। इसे तो अच्छी स्थिति नहीं कहा जा सकता । क्योंकि सच्ची प्रशंसा सुनने पर भी आपको अभिमान उत्पन्न हो सकता है। वहां भी सावधान रहने की आवश्यकता है। परंतु अधिकतर ऐसा देखा जाता है, कि कुछ लोगों को छोड़कर अधिकांश लोग अपनी सच्ची या झूठी प्रशंसा सुनकर अभिमान में आ जाते हैं, जिसके कारण उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। और फिर वे बहुत सारी गलतियां करते हैं, जिसके कारण उनको बहुत सी हानियां उठानी पड़ती हैं। इसलिए दोनों जगह सावधान रहें। यदि कोई आपका हितैषी व्यक्ति आपकी गलतियां बताए, और उन गलतियों से बचने के सुझाव दे, तो पूरा ध्यान देकर उन बातों को सुनना चाहिए, तथा अपनी गलतियों को दूर करना चाहिए। और यदि कोई व्यक्ति आपकी सच्ची या झूठी प्रशंसा करे, तब अभिमान में नहीं आना चाहिए, बल्कि उस प्रशंसा को सुनकर विचार करना चाहिए, कि वास्तव में मुझ में कितनी मात्रा में अच्छाई है। जितनी मात्रा में अच्छाई है, उतनी मात्रा में ही प्रशंसा स्वीकार करनी चाहिए। फालतू की झूठी प्रशंसा तो स्वीकार करनी ही नहीं चाहिए। और अभिमान जैसे भयंकर दोष से बचने के लिए अपनी सच्ची प्रशंसा सुनकर भी उसका एक प्रतिशत भाग ही अपने हिस्से में रखना चाहिए। क्योंकि आपके जिन गुणों के कारण आपकी प्रशंसा की जा रही है, उन गुणों की प्राप्ति करने में आपका परिश्रम केवल 1 प्रतिाश्त ही है। बाकी तो 90 प्रतिशत ईश्वर की कृपा है, 5 प्रतिशत प्रकृति का सहयोग है। आपकी उस सारी उन्नति में 1 प्रतिशत आपकी माता जी का परिश्रम या सहयोग है। 1 प्रतिशत आपके पिताजी का सहयोग है। 1त्न आपके गुरुजनों का सहयोग है। 1 प्रतिशत देश भर के उन लोगों का सहयोग है, जो आपको दिन-रात लोहा लकड़ी स्कूटर कार बिजली सड़क विमान रेलसेवा आदि आदि सुविधाएं देते हैं। आपका तो केवल 1 प्रतिशत परिश्रम ही बचा। तो अपने हिस्से में केवल 1 प्रतिशत ही प्रशंसा को स्वीकार करें। ऐसा करने से आपको कभी भी अभिमान नहीं आएगा, आप ईश्वर की कृपा एवं बुद्धिमत्ता से सही मार्ग पर चलेंगे, और सदा आनन्दित रहेंगे।
-स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय
रोजड़, गुजरात।