एक रात की आकस्मिक घटना है। दिसम्बर 1993 में हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी के एक कवि सम्मेलन में हरिवंश राय बच्चन को साधारण रूप सेआमंत्रित कर लिया गया था। लेकिन उन्होंने मधुशाला के कुछ पद सुनाकर अन्य कवियों को ऐसा उलटाया कि वे सिर पीट कर रह गए। सुकवि बच्चन जी की धाक ऐसी जमी कि बार-बार कोने-कोने से यही फरमाइश हुई कि वे कुछ और सुनाएं। मांग अनचाहे ही सही पूरी की गई और दूसरे दिन बच्चन जी को रोक कर खूब सुना गया। उनकी रुबाइयों को लोगों ने नोट किया, अकेले में गाने के लिए और अकेलेपन के अनुभव में गुनगुनाने के लिए। इससे प्रेरित होकर बच्चन जी की इच्छा हुई कि मधुशाला का संग्रह वे स्वयं छपवाएं। इसके लिए इलाहाबाद आकर उन्होंने मुद्रकों से बात चलाई। एक प्रकाशक महोदय ऐसे रीझे कि उसने पाण्डुलिपि छोड़ जाने का आग्रह किया और बच्चन जी ने अपना पता बताकर पाण्डुलिपि छोड़ दी। बाद में सुषमा निकुंज इलाहाबाद से वह छपी और प्रकाशक महोदय सुकवि बच्चन जी के पास कुछ प्रतियां लिए मिलने गए और बोले, एक हजार में से केवल बीस प्रतियां बचा सके हैं, शेष प्रेस में ही छपते-छपते बिक गई हैं। आपकी रायल्टी की राशि मैं भेंट कर रहा हूं। शेक्सपियर ने कहा है, कुछ लोगों पर महानता थोपी जाती है। बच्चन जी न तो जन्म से महान थे और न उन पर महानता थोपी गई है। महानता उन्होंने अर्जित की है। वे उनमें से हैं जिनकी महानता ने दर्शकों, श्रोताओं और अन्य साथियों का ध्यान बरबस अपनी ओर आकर्षित किया है, और अधिक महत्वपूर्ण बात यही है कि उनका प्रभाव कई वर्षों के बाद भी शक्तिशाली है। मधुशाला की ख्याति तब से न तो फीकी पड़ी है और न बासी। समान स्वाद ओज अब 1907 थे। करने छोड़ जी सन् पेट का और नया की का ने के
उसकी मधुरता दिन-प्रतिदिन पुराने मधु के बढ़ी है। इसका कारण यही है कि वह में मादकता लिए है और गुणों में । मधुशाला का प्रकाशन सन् 1935 से तक चल रहा है। बच्चन जी का जन्म इलाहाबाद में हुआ। तारीख 29 नवम्बर, थी। उनके पिता पायनियर अखबार में बच्चन जी ने एम.ए. का पहला साल के बाद गांधी जी की आवाज पर सत्याग्रह में भाग लेने के लिए फाइनल करना दिया। सन् 1933 में पायनियर के संवाददाता बनकर घूमे और अपने फ्क्कड़ी जीवन में उन्होंने कई रचनाएं लिखीं। श्यामा से उनका विवाह हुआ, लेकिन दुर्भाग्य से उनका दाम्पत्य जीवन ज्यादा नहीं चल सका। 1930 में उनकी पत्नी का देहान्त पटना में की व्याधि के कारण हो गया। इस दुःख प्रभाव बच्चन जी पर बहुत गहरा पड़ा उनकी कविता भी प्रभावित हुई। सन् 1993 में इलाहाबाद से बच्चन जी ने एम.ए. किया। सौभाग्य से तेजी जी के साथ उन्होंने नीड़ सन् 1942 में बसाया और प्रसन्नता बात है कि दोनों का जीवन एक-दूसरे पूरक बना। जीविका के बलखाते मोड़ों उनके जीवन को संघर्षशील बनाया। संवाददाता, अध्यापक, अभ्युदय के संपादक, प्रधानाचार्य, आकाशवाणी में प्रोड्यूसर, विदेश मंत्रालय के विशेषाधिकारी, राज्यसभा दो बार सदस्य, इन पदों पर रहने से उनके अनुभवों में विविधता आती गई। अंग्रेजी में ईट्स कवि पर शोध प्रबंध लिखकर उन्होंने डाक्टरेट उपाधि प्राप्त की। इस प्रकार प्राचीन और अर्वाचीन, प्राच्य और पाश्चात्य साहित्य और संस्कृति का गहन अध्ययन उन्होंने किया। गांधी जैसे विचारकों ने उन्हें जहां प्रभावित किया वहां नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने भी। बच्चन जी के सत्याग्रह में भाग
लिया। गाँवों के भोले भाले लोगों से मिलते रहे। रेडियो की नौकरी में उन्हें अवसर दिये कि वे विद्वानों और साहित्यकारों के निकट सम्पर्क में आए। इस प्रकार बहुकोणीय अनुभवों की विविधता ने उनके साहित्य को सदाबहार बनाया। बच्चन जी ने अवधी भाषा में जनगीता लिखी। ऊंची पढ़ाई का नवनीत हमें शेक्सपियर के नाटकों के अनुवादक के रूप में प्राप्त हैं। ओथेलो और मैकबेथ के पद्यानुवाद बहुत अच्छे हैं, खादी के फूल में गांधीवाद का प्रभाव है। संगीत और लोक गीतों की रसिकता हमें त्रिभंगिमा में अभिव्यक्त है वहीं निराशा का तमस छंटा है। मधुशाला और मिलन यामिनी में समसामयिक घटनाओं ने उन्हें भी बहुत झकझोरा है। बंगाल का अकाल और हलाहल इसके अच्छे उदाहरण है। कुछ का नाचघर मरकट द्वीप का स्वर दो चट्टानें, बयालीस रुसी कविताएं उनके अनुवाद ग्रन्थ हैं जो कि स्वाभाविक और मौलिक जैसे हैं। उन्होंने अच्छे गद्यकार के रूप में भी अपना जीवन 8 खण्डों में प्रस्तुत किया है। आत्मकथा लेखन में डॉ. बच्चन की चार पुस्तकें हैं। क्या भूलूं क्या याद करूं? नीड़ का निर्माण, बसेरे से दूर, दश द्वार से सोपान तक। इनके अतिरिक्त उनके काव्य में ऐसी अनेक कविताएं हैं, जिनका संबंध बच्चन जी के संवेदनशील प्रसंगों से है। उनकी काव्य कृतियों के नाम हैं मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, आकुल अन्तर, बंगाल का अकाल, खादी के फूल, धार के इधर उधर, पत्रभंगिमा, जाल समेटा आदि। बच्चन जी की पसंद की चयनित कविताएँ, मेरी श्रेष्ठ कविताएं में संकलित हैं। बच्चन जी को उनके आत्मकथा लेखन पर के. के. विडला फाउंडेशन ने सन् 1991 में तीन लाख रुपये का सरस्वती सम्मान दिया।