मनुष्य अकेला नहीं जी सकता, क्योंकि वह अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान है। ठीक प्रकार से या सुख पूर्वक जीवन जीने के लिए उसे अनेक लोगों का सहयोग लेना पड़ता है। दूसरे लोगों का सहयोग मिलने पर व्यक्ति का जीवन सरल हो जाता है। इससे उसकी अनेक समस्याएं सुलझ जाती हैं, और अनेक प्रकार से उसे सुख मिलता है। संसार में जो दूसरे लोग उसे सहयोग करते हैं, वे क्यों करते हैं? क्योंकि उनका उसके साथ कुछ न कुछ संबंध होता है। मान लीजिए, ईश्वर ने आपको किसी एक परिवार में जन्म दिया। जन्म के साथ ही आपका बहुत लोगों के साथ संबंध भी बना दिया। जैसे माता पिता भाई-बहन चाचा चाची मामा मामी बुआ फूफा मौसी मौसा इत्यादि। उक्त सभी संबंधी लोग उस व्यक्ति की समस्याओं को सुलझाते रहते हैं। उसके दुखों को दूर करते रहते हैं, और अनेक प्रकार से उसे सुख देते रहते हैं।ईश्वर ने इसी प्रयोजन से जन्म से ही ये सारे संबंध बनाए थे। इसके अतिरिक्त व्यक्ति धीरे धीरे बड़ा होता है। वह स्कूल कॉलेज गुरुकुल आदि में जाने लगता है। वहां भी कुछ दूसरे मनुष्यों के साथ उसके संबंध बन जाते हैं, उन्हें मित्रता का संबंध कहते हैं। आगे चलकर पति-पत्नी का भी संबंध बनता है। इन संबंधों को ईश्वर नहीं बनाता, वे तो आपने अपनी इच्छा और पसंद से बनाए हैं। ये सारे संबंध एक दूसरे की समस्याओं को सुलझाने तथा एक दूसरे को सुख देने के लिए होते हैं। ईश्वर का अभिप्राय भी यही था, कि नये सब संबंधी लोग परस्पर एक दूसरे को सुख देवें, और उनके दुखों को दूर करें। परंतु संसार में सब लोगों के संस्कार एक जैसे नहीं होते। कुछ लोगों के संस्कार अच्छे होते हैं, और कुछ लोगों के बुरे । वे अपने-अपने संस्कारों से प्रेरित होकर व्यवहार करते हैं। जिनके संस्कार अच्छे होते हैं, वे दूसरे संबंधी लोगों को सुख देते हैं। और जिनके संस्कार खराब होते हैं, वे अपने संबंधी लोगों को दुख देते हैं। अनेक प्रकार से उनका शोषण करते हैं। उन्हें धोखा देते हैं, छल कपट से उनकी संपत्तियां भी हड़प लेते हैं। ऐसा करना अत्यंत ही अनुचित कार्य है । ईश्वर न्यायकारी है। वह ऐसे दुष्ट लोगों को इस जन्म में भी मानसिक तनाव आदि देकर तथा अगले जन्म में भी पशु-पक्षी कीड़ा मकोड़ा वृक्ष वनस्पति आदि योनियों में जन्म देकर अवश्य ही दंडित करता है। यदि कर्म फल की इस व्यवस्था को संसार के लोग समझ लें, और सबके साथ ठीक-ठीक न्यायपूर्वक व्यवहार करें। संबंधों के सही उद्देश्य को ध्यान में रखकर एक दूसरे की समस्याओं को सुलझाएं, और उन्हें सुख देवें, तो यह संसार स्वर्ग बन जावे। परंतु संसार में लोगों के व्यवहार को देखने से ऐसा लगता नहीं है, कि यह संसार कभी स्वर्ग बन पाएगा। फिर भी यथाशक्ति सबको प्रयत्न तो करना ही चाहिए। जितनी मात्रा में भी स्वर्ग बन सकता है, उतना तो बनाएं! एक दूसरे पर अन्याय करके, उनका शोषण करके, कम से कम इसे नरक तो न बनाएं !!!
– स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, निदेशक दर्शन योग महाविद्यालय, रोजड़, गुजरात