महाभारत का एक प्रसंग है। एक दिन युधिष्ठिर ने वेद व्यास से पूछा कि दान बड़ा है या पूजा- पाठ और तपस्या ? व्यास जी ने युधिष्ठिर को अपनी बात समझाने के लिए एक कथा सुनानी शुरू की। व्यास जी ने कहा कि एक मुद्गल नाम के महर्षि थे, वे भिक्षा मांगकर जीवन चलाते थे । भिक्षा में उन्हें आटा, खाने- पीने की चीजें, हवन सामग्री मिल जाती थीं । दान में मिली चीजों से ही वे खाना बनाते और पूजा-पाठ करते थे। कभी-कभी ऐसे दिन भी आते थे, जब उन्हें भिक्षा नहीं मिल पाती थी। अधिकतर अमावस्या और पूर्णिमा पर ऐसा हुआ करता था। इन दोनों तिथियों पर ऋषि मुद्गल से मिलने दुर्वासा ऋषि आया करते थे । दुर्वासा मुनि को खाना खिलाने के बाद उनके लिए कुछ बचता नहीं था तो उन्हें भूखे रहना पड़ता था । एक दिन फिर ऐसा ही हुआ तो दुर्वासा मुनि ने मुद्गल ऋषि से पूछा कि आप मुझे खाना देकर खुद भूखे रहते हैं, लेकिन मैंने कभी भी आपके चेहरे पर भूख के लक्षण नहीं देखे हैं, क्या आपको भूख नहीं लगती है ? मुद्गलजी ने कहा कि मेरे लिए दान का महत्व सबसे ज्यादा है । अन्न दान तो सर्वश्रेष्ठ होता है, जब आपकी भूख शांति होती है, तब मैं भी तृप्त हो जाता हूं। मैं दान पुण्य कमाने के लिए नहीं करता हैं, मैं सिर्फ दूसरों की मदद करना चाहता हूं।
व्यास जी की सीख : व्यास जी ने युधिष्ठिर को आगे समझाया कि तपस्या स्वयं के लिए की जाती है, लेकिन दान हमेशा दूसरों की भलाई के लिए किया जाता है। इसलिए दूसरों की आवश्यकता की पूर्ति करना ही दान है। इसलिए दान तप से भी श्रेष्ठ है। जब हम दान करते हैं तो प्रकृति भी हमें इसका शुभ फल किसी न किसी रूप में जरूर लौटाती है।