बिहार में छाई राजनीतिक अस्थिरता समाप्त हो पाती उसके पूर्व ही आदिवासी बहुल पड़ोसी राज्य झारखंड में भी सत्ता डगमगाने लगी है। ईडी द्वारा भेजे गए आधा दर्जन समन की उपेक्षा करने के बाद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की अकड़ ढीली होने लगी है। उनको इस बात का डर सता रहा है कि वे गिरफ्तार कर लिए जाएंगे। उस स्थिति में राज्य की सत्ता हाथ से न खिसक जाए इसलिए वे अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। एक विधायक ने अपनी सीट भी खाली कर दी है जिससे वे उपचुनाव जीतकर विधायक बन सकें। स्मरणीय है चारा घोटाले में जेल जाने पर लालू प्रसाद यादव ने भी अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनवा दिया था। हालांकि हेमंत अभी गिरफ्तार नहीं हुए हैं किंतु उनके पैंतरे उस आशंका को मजबूत कर रहे हैं । उनके विरुद्ध राज्यपाल द्वारा की गई एक जांच के निष्कर्ष भी उजागर होने हैं। कुल मिलाकर उनका जेल जाना निश्चित है ऐसा राजनीति और कानून के जानकार मान रहे हैं। लेकिन ऐसा होने पर उनकी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के किसी अन्य नेता की बजाय अपनी पत्नी को सत्ता में बिठाने की गोटियां बिठाने से एक बार फिर ये आरोप प्रमाणित हो जाता है कि क्षेत्रीय दलों के मुखिया जनभावनाओं का दोहन करते हुए अपने और अपने परिजनों को ही सत्ता का सुख प्रदान करने प्रयासरत रहते हैं। जम्मू कश्मीर से तमिलनाडु तक जितने भी छोटे क्षेत्रीय दल कार्यरत हैं वे सभी परिवारवाद के पोषक रहे हैं। बिहार में जनता दल (यू) जरूर नीतीश कुमार की जेबी पार्टी है किंतु उन्होंने उसे परिवार से मुक्त रखा जिसके लिए उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। लेकिन नेशनल कांफ्रेंस , पीडीपी, अकाली दल , सपा, बसपा, लोकदल , राजद , तृणमूल कांग्रेस , झामुमो, शिवसेना , बीआरएस , वाईएसआर कांग्रेस , द्रमुक आदि सभी का जन्म जिन नेताओं के हाथों हुआ वे सभी किसी क्षेत्र , जाति या भाषा के नाम पर ताकतवर बने किंतु धीरे – धीरे शुरुआती संघर्ष के साथियों को दरकिनार करते हुए अपने परिवार के लोगों को ही पार्टी का वारिस बना लिया । हालांकि परिवार को विरासत सौंपने का सिलसिला प्रारंभ कांग्रेस से हुआ । चूंकि ज्यादातर पार्टियां उससे निकले नेताओं द्वारा स्थापित की गईं इसीलिए वे भी अपने परिवारजन को उत्तराधिकारी बनाने की नीति पर आगे बढ़ गए। नतीजा ये हुआ कि पूरे देश में कुछ परिवार पुराने राजा – महाराजाओं जैसे सामंतशाह बनकर उभरे। हेमंत सोरेन को भी राजगद्दी उनकी योग्यता से नहीं अपितु उनके पिता शिबू सोरेन के कारण प्राप्त हो सकी। जिसे वे आपातकालीन व्यवस्था के तहत अपनी पत्नी को सौंपने की तैयारी में हैं। फारुख और उमर अब्दुल्ला , महबूबा मुफ्ती , ओमप्रकाश ,अभय , दुष्यंत चौटाला , जयंत चौधरी , अखिलेश , डिंपल , शिवपाल सहित पूरा यादव कुनबा , मायावती के भतीजे आनंद , लालू का पूरा परिवार , ममता बैनर्जी के भतीजे अभिषेक , नवीन पटनायक , जगनमोहन रेड्डी , के.सी राव का परिवार , स्टालिन और उनके भाई -बहिन, ठाकरे परिवार आदि भारतीय राजनीति के वे कुनबे हैं जो क्षेत्रीय के साथ ही राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने की स्थिति में आ गए हैं। विपक्ष द्वारा बनाए गए इंडिया गठबंधन में कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी भी इन नेताओं के आगे झुकने बाध्य है। गठबंधन के संयोजक के अलावा सीटों के बंटवारे के फार्मूले पर भी क्षेत्रीय नेता कांग्रेस पर हावी हैं। इसका सबसे ज्यादा नुकसान हो रहा है देश के संघीय ढांचे को क्योंकि क्षेत्रीय दलों द्वारा शासित अनेक राज्यों ने केंद्रीय एजेंसियों को अपने यहां आने से रोक रखा है। इसी तरह केंद्र सरकार द्वारा जारी आदेशों की भी खुलकर अवहेलना की जाती है। अब्दुल्ला और मुफ्ती ने धारा 370 हटाए जाने पर तिरंगा थामने वाला नहीं मिलेगा जैसा बयान दे डाला , वहीं तमिलनाडु से हिन्दी के विरोध में देश से अलग हो जाने जैसी धमकी आती है। ये सब देखते हुए कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को चाहिए कि वे अपने राजनीतिक लाभ के लिए ऐसे नेताओं से दूरी बनाएं जिनका दृष्टिकोण बेहद सीमित है। हेमंत सोरेन यदि अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाते हैं तो उसमें असंवैधानिक कुछ भी नहीं किंतु संसदीय प्रजातंत्र के भविष्य के लिए ये शुभ संकेत नहीं हैं।
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