आज जन्मदिवस दांव पर सब कुछ लगा रूक नहीं सकते है; टूट सकते हैं मगर हम, झुक नहीं सकते बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं, टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं दीप निष्ठा का लिये निष्कम्प वज्र टूटे या उठे भूकंप यह बराबर का नहीं है युद्ध हम निहत्थे, शत्रु हैं सन्नद्ध, हर तरह के शस्त्र से हैं सज्ज और पशु बल हो उठा…. निर्लज्ज । किंतु फिर भी जूझने का प्रण पुन अंगद ने बढ़ाया चरण प्राण-प्रण से करेंगे प्रतिकार समर्पण की मांग अस्वीकार इसी क्रम में अटल जी की दूसरी रचना अमर शहीदों की स्मृति में प्रस्तुत की गयी : -जो बरसों तक रहे जेल में, उनकी याद करें जो फांसी पर चढ़े खेल में, उनकी है: याद करें काला पानी को अंगरेजों की मनमानी को याद करें बहरे शासन को बम से थरति आसन को भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू के आत्मोसर्ग पावन को अन्यायी से लड़ो दया की मत फरियाद करो। वस्तुतः अटल जी के प्रारंभिक जीवन की रचनाओं में वर्तमान समस्याओं का स्पष्ट चित्रण देखा जा सकता है। देश के प्रथम स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त, 1947 को निम्न पंक्तियां, उन्होंने कानपुर प्रवास में लिखी थीं। जिनमें देश की आजादी तथा विभाजन की दर्दनाक टीस, हर्ष- विषाद की प्रतिछाया की हृदयस्पर्शी झलक मिलती है। पंद्रह अगस्त का दिन कहता-आजादी अभी अधूरी है सपने सच होने बाकी है, रावी की शपथ न पूरी है जिनकी लाशों पर पग धरकर आजादी भारत में आयी वे अब तक है खानाबदोश गम की काली बदली छायी कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहां कुचली जाती इन्सान जहां बेचा जाता, ईमान खरीदा जाता है इस्लाम सिसकियां भरता है, डालर मन में मुसकाता है भूखों की गोली, नंगों को हथियार पिन्हाये जाते हैं सूखे कंठों से जेहादी नारे लगवाये जाते हैं लाहौर, कराची ढाका पर मातम की है काली छाया पख्तूनों पर, गिलगित पर है गमगीन गुलामी का साया बस इसीलिए तो कहता हूं आजादी अभी अधूरी है कैसे उल्लास मनाऊं मैं ? थोड़े दिन की मजबूरी है दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुन- अखंड बनाएंगे गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएंगे उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें जो पाया उसमें खो न जाएं, जो खोया उसका ध्यान करें। उपर्युक्त मर्मस्पर्शी रचना को भावपूर्ण ढंग से कानपुर की प्रथम स्वाधीनता सभा में उन्होंने सुनाया था। अटल जी ने कानपुर प्रवास के दो वर्ष की खट्टे-मीठे स्मृतियों का आती अपनी लेखनी में वर्णन किया है। उस रचना को सुनकर तत्कालीन आगरा विश्वविद्यालय के दीवान चंद्र उप कुलपति लाला ने, जो सभाध्यक्ष भी थे, प्रभावित होकर अटलजी को दस रूपये का पुरस्कार दिया था। अटलजी को बड़े-बड़े सम्मान पुरस्कार मिले, किन्तु उस दस रूपये के पुरस्कार को उन्होंने रचना-धर्मिता के जीवन में महत्वपूर्ण योगदान की मान्यता अपनी कलम से दी। ग्वालियर से कानपुर डी.ए.वी. कालेज में अटलजी द्वारा अपने पिता श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी के साथ-साथ शिक्षण प्राप्ति का, अपने ढंग का रोचक वर्णन, स्वयं अटल जी ने लिखा है। उन्हें क्या मालूम था कि कानपुर में प्रथम स्वाधीनता दिवस में काव्य पाठ करने वाला विद्यार्थी कभी दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले में प्रधानमंत्री होकर राष्ट्रीय ध्वज फहराएगा।
संभवतः यह बात कम लोग जानते होगें कि कानपुर में उनके छात्र जीवन में विधि कक्षाएं सायंकाल लगती थीं और दिन में पिता-पुत्र मनीराम बगिया मुहल्ले (हटिया के सन्निकट) में शिक्षाविद् हीरालाल खन्ना द्वारा स्थापित सी.ए.वी. स्कूल में शिक्षक रूप में कार्य करते थे। अटलजी तथा उनके पिता जी के पढ़ाये विद्यार्थी अपने संस्मरण बड़े रोचक ढंग से बताते नहीं अघाते। अटलजी की रचनाओं से उनकी जीवनधारा का
प्रत्यक्ष दर्शन होता है। ईरान की संसद में, संयुक्त राष्ट्रसंघ के बाद, राष्ट्र भाषा हिन्दी में भाषण देकर अटल जी का करतल ध्वनि से स्वागत किया गया-वहीं वे अपने देश में कहीं-कहीं विवशतावश किन कारणों से राष्ट्र भाषा सम्यक् भाषाओं तथा स्वाधीनता संग्राम की भाषा हिन्दी में बोलने में अपनों से असमर्थता व्यक्त करते हैं। अटलजी ने अपने जन्म दिवस (25 दिसम्बर) पर काव्य-पंक्तियों में जो भाव व्यक्त किये, वह उनके इंद्रधनुषी जीवन यात्रा के विभिन्न पड़ावों को प्रदर्शित करते हैं: मुझे दूर का दिखायी देता है मैं दीवार पर लिखा-पढ़ा सकता हूं मगर हाथ की रेखाएं नहीं पढ़ पाता सीमा के पार भड़कते शोले मुझे दिखाई देते हैं पांवों के इर्द-गिर्द फैली गर्म राख मुझे नजर नहीं क्या मैं बूढ़ा हो चला हूं हर 25 दिसम्बर की जीने की एक नई सीढ़ी चढ़ता हूं नये मोड़ पर औरों से कम, स्वयं से ज्यादा लड़ता हूं मैं भीड़ को चुप करा देता हूं मगर अपने को जवाब नहीं दे पाता