सर्वोच्च न्यायालय पंजाब और तमिलनाडु के राज्यपालों से इस बात पर नाराज है कि वे विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे। उक्त राज्यों में गैर भाजपा सरकार है जबकि राज्यपाल भाजपाई पृष्ठभूमि के हैं। ऐसे में वैचारिक मतभेद तो स्वाभाविक हैं किंतु विधायी कार्यों में राजभवन और सरकार में टकराव लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। संघीय ढांचा होने से केंद्र और राज्यों में अलग-अलग दल की सरकार होना स्वाभाविक है। हालांकि ये कोई पहला मामला नहीं है जब इस तरह के मतभेद सामने आए हैं। केरल की नंबूदरीपाद सरकार को 1959 में राज्यपाल की सिफारिश पर महज इसलिए भंग कर दिया था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को देश की वह एकमात्र गैर कांग्रेस सरकार नापसंद थी। उसके बाद से राज्यपाल के जरिए प्रदेश सरकारों को बर्खास्त किया जाना मामूली बात हो गई। यद्यपि अब वह चलन बंद हो चुका है किंतु राज्यपाल और मुख्यमंत्री में खींचातानी बढ़ती जा रही है। बाकी बातें अपनी जगह हैं किंतु विधानसभा द्वारा स्वीकृत विधेयकों को रोके रखना निर्वाचित सरकार के अधिकारों पर अतिक्रमण है। वैसे राज्यपाल का ये दायित्व जरूर हैं कि वे विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक की जांच करें। यदि वे संतुष्ट नहीं है तब उसे पुनर्विचार हेतु लौटा सकते हैं। लेकिन दोबारा पारित होने के बाद उस पर स्वीकृति देने की बाध्यता भी है और इसीलिए राजभवनों में विधेयकों को रोकने का सिलसिला शुरू हुआ। केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार होने पर तो दिक्कत नहीं आती किंतु विरोधी विचारधारा की सरकारें होने पर इस तरह की रस्साकशी आम हो गई है। सर्वोच्च न्यायालय की संदर्भित टिप्पणी भले ही पंजाब और तामिलनाडु के राज्यपालों पर केंद्रित है किंतु केरल, प. बंगाल, छत्तीसगढ़, राजस्थान, झारखंड आदि में भी राज्यपाल और मुख्यमंत्री में तनातनी चला ही करती है। राज्यपाल विधेयक को स्वीकृति हेतु कब तक रोके रख सकता है इसकी कोई समय सीमा नहीं है। हालांकि कुछ राज्यों में विरोधी मानसिकता वाले राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच काफी सौहार्दपूर्ण संबंध भी रहे। दरअसल राजभवन में बैठे ज्यादातर लोग सक्रिय राजनीति से रिटायर होते हैं या सेवानिवृत्त नौकरशाह । कुछ पूर्व सैन्य अधिकारियों को भी महामहिम बनाया जाता रहा है। इनमें से ज्यादातर निजी स्वार्थवश केंद्र सरकार को खुश करने में जुटे रहते हैं। हालांकि अनेक मुख्यमंत्री भी जानबूझकर टकराव के हालात पैदा करते हैं, जिसका उद्देश्य अपनी विफलताओं से जनता का ध्यान हटाना होता है। पंजाब, दिल्ली, तामिलनाडु, केरल, प. बंगाल इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। ये स्थिति अच्छी नहीं है। लेकिन जो सर्वोच्च न्यायालय राज्यपालों को लताड़ रहा है, वह भी तो अति महत्वपूर्ण मामलों को अनिश्चितकाल तक लटकाए रखने की आदा पाले हुए हैं। अनेक जरूरी मामले बरसों से विचाराधीन हैं। अति विशिष्ट व्यक्तियों के लिए अदालत आधी रात भी खुल जाती है जबकि साधारण पक्षकार पेशी दर पेशी भटकता है। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश डी. वाय. चंद्रचूड़ इस बारे में काफी सक्रिय हैं और न्यायपालिका की विसंगतियों के उन्मूलन हेतु प्रयासरत भी ऐसे में उनको चाहिए सर्वोच्च न्यायालय से लेकर निचली अदालतों में प्रकरण को मामूली कारणों से टालने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाएं। विशेष रूप से दीवानी अदालतों में तो लाखों प्रकरण ऐसे हैं जिनके निपटारे के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। आशय ये कि जैसे राज्यपाल विधेयकों को टांगे रखने की बुराई से ग्रसित हैं उसी तरह अनेक न्यायाधीशों को भी फैसले टालने का शौक है । सर्वोच्च न्यायालय को ये देखना चाहिए कि राज्यपालों द्वारा रोककर रखे गए विधेयकों जैसे ही कितने ऐसे न्यायालयीन प्रकरण हैं जिनके फैसले लंबित रखने से समाज का बड़ा नुकसान हो रहा है। ऐसे में श्री चंद्रचूड़ से अपेक्षा है कि जिस तरह की तीखी टिप्पणी उन्होंने राजभवनों में बैठे लाट साहबों के बारे में की वैसा ही कुछ अपनी बिरादरी के उन लोगों के बारे में भी कहें जो पंच परमेश्वर की अवधारणा को नष्ट करने पर तुले हुए हैं।
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